माधवी श्री
अभी हाल में चित्रकूट जाने का मौका मिला। अवसर था, दीनदयाल उपध्याय और नाना जी देशमुख की जन्म शतब्दी। कोलकाता में जो पैदा हुए और पढ़े लिखे हैं, उनके लिए नाना जी देशमुख का नाम बिलकुल नया सा है। प.दीनदयाल जी के बारे में मैंने पहले सुना था। बहरहाल जब "ग्रामोदय मेला" में मेरा चित्रकूट जाना हुआ, तो कुछ खट्टे-कुछ मीठे अनुभव मुझे हुए।
एक तो पता चला कि राम जी ने अपना वनवास कहां काटा था। आज वहां जनता 21वीं सदी में कैसे जी रही है, किस हद तक आधुनिक भारत ने वहां पांव पसारे हैं। चित्रकूट में एक आंखो का अस्पताल है, एक "आरोग्य धाम " है जहां आयुर्वेद तरीके से इलाज किया जाता है। इस आरोग्या धाम की चर्चा राष्ट्रीय स्तर पर होनी चाहिए। इतना सुविधा संपन्न इलाज का केंद्र लोगों को पता ही नहीं।
मेले में एक दंपति से मुलाकात करवाई गई जिन्होंने ग्रामीण जीवन शैली स्वेच्छा से अपनाई, ताकि वे गाओ में रहकर वहां के लोगो के विकास में अपना योगदान दे सके और यह परिकल्पना नाना जी देशमुख की थी।
तीन दिन की यह यात्रा मन में कुछ प्रश्न छोड़ती है। क्या हम अपने गांव को उसकी अस्मिता के साथ विकास करने देंगे? क्या गांव के बारे में सिर्फ हम निर्णय लेंगे या गांव के लोगों को भी विकसित होने देंगे, कि वो अपना भला-बुरा खुद सोच सके।
कुछ अच्छी बात वहां यह थी, कि कुछ लोकल बिजनेसमेन से मुलकात हुई। उनसे मिलकर भरोसा बढ़ा कि लोकल लोगों के व्यवसायिक प्रयास को पहचान और सफलता दोनों मिल रही है। एक रामबाण तेल मेरे भी हाथ लगा जिसके कारण मेरा खुद का पांव दर्द बहुत कम हो गया। इस तरह के लोकल मेड सामान का प्रचार -प्रसार होना चाहिए ताकि स्थायी व्यवसायियों को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिल सके।
चित्रकूट को सरकार चाहे तो "धार्मिक पर्यटन स्थल" के रूप मे विकसित कर सकती है, जिससे स्थानीय लोगों को रोजगार के साधन उपलब्ध होंगे। साथ ही साथ स्थानीय व्यापरियों को भी व्यवसाय के नए मौके मिलेंगे।कुल मिला कर चित्रकूट की यात्रा एक धार्मिक और पत्रकरिता के लिहाज से एक बेहद स्मरणीय यात्रा रही।