Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

पंछी ऐसे आते हैं : सधा हुआ बेहतरीन नाटक

हमें फॉलो करें पंछी ऐसे आते हैं : सधा हुआ बेहतरीन नाटक
webdunia

स्मृति आदित्य

पंछी आते हैं कुछ देर रुकते हैं मन की खुशी देकर फुर्र हो जाते हैं। फिर किसी नए ठिकाने की तलाश में उड़ते हैं, कुछ देर रुकते हैं पर कहीं सदा के लिए रूक ही नहीं जाते हैं.... पंछी ऐसे आते हैं।


मशहूर लेखक-नाटककार विजय तेंदुलकर की मूल मराठी नाटक कृति 'अशी पाखरे येती' का यह हिन्दी अनुवाद आज देश भर की नाट्य संस्कृति का अभिन्न अंग है। यह नाटक हर उस जगह खेला और पसंद किया जा रहा है, जहां थियेटर की परंपरा अपनी संपूर्ण गरिमा के साथ सांस ले रही है। 
 
विगत दिनों इंदौर की संस्था अभिनव रंगमंडल की और से शरद शर्मा द्वारा इसे मंचित-प्रस्तुत किया गया। शहर के मशहूर रंगकर्मी श्रीराम जोग के निर्देशन में इस नाटक की प्रस्तुति अत्यंत प्रभावी रही। यह नाटक पूरे वक्त पाठकों को बांधे रहा। शिल्प की दृष्टि से नाटक इतनी कुशलता से तराशा हुआ है कि अंत तक रोचकता बनी रहती है। 
 
कथा : कहानी कुछ यूं है कि अरुण स्वतंत्र विचारों वाला बंदा है। यूं ही भटकता हुआ किसी पंछी की ही भांति एक मध्यमवर्गीय परिवार में प्रवेश करता है। परिवार के लिए वह पूरी तरह से अजनबी है और उसके लिए परिवार अजनबी है लेकिन परिवार की लड़की की कुछ कशिश ऐसी है कि वह उसके पीछे घर में प्रवेश कर जाता है। घर में आकर वह अपनी बातों के लच्छे से यह साबित करने में कामयाब हो जाता है कि वह उनका पुराना परिचित है। कहानी लय तब पकड़ती है जब उसे पता चलता है कि जिस लड़की(सरस्वती) के पीछे वह भीतर तक चला आया है वह कुछ अजीब से स्वभाव की है। यह स्वभाव उसका अनुभवजन्य है। बार-बार लड़के देखने आते हैं और उसे नापसंद कर के चले जाते हैं इसी से वह कुछ अक्खड़ हो चली है। अरुण यानी अजनबी महसूस करता है कि सरस्वती अपने आप से खफा ज्यादा है। वह सरस्वती के भीतर की अकड़ को आत्मसम्मान में बदलने की कोशिश करता है। सरस्वती को खुद से प्यार करना सिखाता है। अपने आप से परिचय करवाता है। वह उसे विश्वास देता है कि वह खूबसूरत है। यह रहस्य जानकर सरस्वती के भीतर की प्यार की चांदनी चेहरे पर झिलमिलाने लगती है। 
webdunia
सरस्वती यह भी पहचान जाती है कि अरुण उनका पुराना परिचित नहीं है वह सिर्फ बातों के बताशे बनाना जानता है। उसेे अरुण की बातें अ‍च्छी लगती है और इसी सुखद अहसास में वह फिर लड़के वालों के सामने जाने के लिए राजी हो जाती है। जबकि सरस्वती के माता-पिता, भाई उसे यही बात मनवाने में सफल नहीं हुए थे। अरुण की बातों का चमत्कार यह होता है कि सरस्वती सजधज कर मन के 'विश्वास' पर विश्वास नामक लड़के के सामने जाती है और पसंद कर ली जाती है। 
 
इधर परिवार खुशी से फूला नहीं समा रहा है जबकि कहानी में ट्विस्ट यह है कि अब सरस्वती को अरुण ही अच्छा लगने लगा है क्योंकि वह मानती है कि यही वह शख्स है जिसने उसके भीतर की सरस्वती को जगाया है। अरुण पेशोपेश में है कि वह तो उड़ता पंछी है इस मुसीबत से कैसे बाहर निकले। सरस्वती नए रिश्ते (विश्वास) से इंकार कर देती है और अरुण के प्रति अपनी भावनाएं परिवार के सामने जाहिर कर देती है। 
 
नए रिश्ते के लिए आया लड़का 'विश्वास' उससे मिलकर जानना चाहता है कि आखिर वह उसे इंकार क्यों कर रही है? सरस्वती उसे भी सच बता देती है। अंतत: परिवार सारी कोशिशों के बाद तय करता है कि सरस्वती अरुण से ही ब्याह दी जाए। 
 
पंछी कब कहां रुकते हैं? .... लेकिन यहां प्यार का मोह है, रिश्तों की सुगंध है, साथ की मधुरता है...कैसे करें इंकार...पर एक तरफ अपनी स्वतंत्रता का ख्याल भी है .... प्यार और स्वतंत्रता में से वह स्वतंत्रता को चुनता है। 
 
अरुण फिर अभिनय का सहारा लेता है और परिवार से कहता है कि वह अच्छे चाल-चलन का लड़का नहीं है। सरस्वती से बिदा लेता है और चल पड़ता है कहीं और किसी और का गम बांटने, खुशी की मधुर सौगात देने..किसी और को उसके हिस्से का आकाश, धरती और शीतल बयार देने के लिए....कुछ दिनों बाद जब वह उसी 'डाल' पर लौटकर आता है तब उसे पता चलता है कि सरस्वती ने 'विश्वास' से विवाह कर लिया है लेकिन अपने बच्चे का नाम अरुण रखा है। रोचक कथानक, चुस्त शिल्प और करीने से लिखे संवादों के साथ इस नाटक ने मन मोह लिया।  
 
अभिनय : कथा का मुख्य पात्र अरुण अभिनीत किया है शरद विश्नोई ने। पूरे नाटक का दारोमदार उन पर ही है। उनकी अच्छी बात यह है कि उन्होंने कोशिश पूरी ईमानदारी से की है। लेकिन कमजोर पक्ष यह है कि नाटक के आरंभ में जब भरपूर आत्मविश्वास की दरकार है तब घबराहट के मारे असहज हो जाते हैं। हालांकि अंत तक आते- आते वे रम जाते हैं और नाटक पर पकड़ बना लेते हैं। शरद में भरपूर संभावनाएं है, जरूरत बस संवाद अदायगी में जान डालने की है। नाटक देखते हुए लगा कि संवाद उन्हें बखूबी याद हैं बस उन्हें भावों के साथ अभिव्यक्त करने की कुशलता विकसित करने की जरूरत है। बावजूद इसके शरद अपना प्रभाव छोड़ने में कामयाब रहे।  
 
सरस्वती की भूमिका में नयन रघवंशी की कोशिशें रंग लाई है। कुछ भाव उनके चेहरे पर स्थायी लगे लेकिन वह  अपना स्थान पूरे नाटक में मजबूती से बनाती है। आत्मविश्वास और अभिनय का सुंदर संयोजन उनमें दिखाई दिया।   
webdunia
अन्ना यानी सरस्वती के पिता की भूमिका में सुमित राज का पूरा असर मंच पर दिखाई देता है। सुमित का अभिनय लाजवाब है। उनकी बॉडी लैंग्वेज उन्हें मंच पर आसानी से स्थापित करने में मददगार साबित हुई। 
 
माता की भूमिका में नम्रता तिवारी सबसे सहज लगी। महाराष्ट्रीय परिवारों में मां जिस तरह से होती है और पानी की तरह घुलमिल जाती है वैसे ही नम्रता ने अपना अभिनय भी सरल-तरल रखा। कहीं से भी वे अभिनय के लिए विशेष प्रयास करती नजर नहीं आई, सहजतापूर्वक वे अपनी भूमिका निभाती चली गई। 
 
बंडा यानी भाई की भूमिका में समीर तोमर पर हास्य गुंथने की जिम्मेदारी थी, उन्होंने इसे ईमानदारी से निभाया भी। सरस्वती को देखने आए विश्वास की भूमिका में रमित थारानी चॉकलेटी चेहरे में भी अभिनय के प्रति गंभीर लगे। छोटा अरुण के रूप में यश भारसिया नजर आए और उम्र के लिहाज से जितना काम बताया गया था उतना निभा ले गए।   
          
निर्देशन : निर्देशन की कसावट और चमक मुक्त कंठ से प्रशंसनीय है। आरंभिक विस्तार में थोड़ा संपादन और संभव है फिर भी श्रीराम जोग अपने अनुभव से इस नाटक को पूर्णत: अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम रहे। नाटक के अंत में उनकी यह विनम्रता अच्छी लगी जब उन्होंने माना कि ''थोड़ी घबराहट जरूरी है वह उनमें भी थी और सब में थी।'' 
 
लेकिन उनका मंजा हुआ अनुभव नाटक को वांछित ऊंचाई दे गया। संवाद अच्छी भाषा में सलीके से लिखे गए हैं बस कुछ बातें गैर जरूरी लगी जैसे आरंभ में अरुण द्वारा सरस्वती को दीदी संबोधित करना जरूरी नहीं था अगर बाद में कहानी आकर्षण का मोड़ लेने वाली है। 
 
मंचसज्जा आकर्षक थी। उड़ते पंछी की तस्वीर पूरे समय नाटक के साथ साम्य बैठाती रही।

ध्वनि संयोजन उम्दा था जबकि प्रकाश पर यह नाटक और भी इनोवेशन की डिमांड करता है। जितना है वह संतोषप्रद है लेकिन नई सोच के साथ और बेहतर हो सकता है। वेशभूषा कथानक के अनुरूप लगी। 
 
संवाद पर की गई मेहनत सुनते हुए स्पष्ट प्रतीत हुई। अच्छी भाषा के साथ चुस्त और चुटीले अंदाज में संवाद लिखे गए हैं। बस बेटी के लिए चुड़ैल जैसे शब्द पिता के मुंह से अखरते हैं यहां तक कि डंडे से मारना भी। अगर वक्त के साथ थियेटर की स्वतंत्रता ली जा सकती है तो यह हिस्सा जीवन की सच्चाई होने के बावजूद अनावश्यक है, इसे हटाया जा सकता है।   
 
कुल मिलाकर एक अच्छे बेहतरीन और स्तरीय नाटक के नाम एक अच्छी शाम रही। 

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

हिन्दी कविता : किताब