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जलती दुनिया : जिम्मेदार कौन?

हमें फॉलो करें जलती दुनिया : जिम्मेदार कौन?
एम.एम. चन्द्रा 
विश्व पर्यावरण दिवस दुनिया भर में मनाया मनाया जाता है। यह तारीख और पर्यावरण के हिसाब से दुनिया के लिए सबसे बड़ा दिन होना चाहिए था, क्योंकि पर्यावरण और जीवन का अटूट संबंध है। लेकिन आज पूरी दुनिया में कुछ व्यक्तिगत प्रयास या NGO ही पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन और विकास का संकल्प लेने की बात कर रहे है, वो भी आर्थिक राजनितिक लाभ के लिए। 
यह किसी भी सभ्य समाज के लिए चिंताजनक ही नहीं, शर्मनाक भी है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या पर सन् 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ आज तक का लंबा सफर तय कर चुका है। आयोजन केवल खाना पूर्ति के लिए लग रहा है। हर साल विश्व भर के देशों का पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया जाता है, लेकिन पर्यावरण को बचाने की मुहीम में विकसित राष्ट्र विकाशील देशों पर यह समस्या मढ़ते रहते हैं और किसी एक देश में अमीर वर्ग गरीब लोगों पर इस समस्या का आरोप लगाते रहते है। किंतु सार्थक और सही दिशा में सोचने की पहल कोई नहीं कर रहा है। न ही सरकारी गैर सरकारी प्रयास कही भी नजर आ रहा है। हां, विज्ञापन में पर्यावरण बचाने का अभियान है किंतु धरातल पर कुछ भी नजर नहीं आता है।
  
आज कई जगह पर पर्यावरण कार्यक्रम प्रति वर्ष की भांति 5 जून को पर्यावरण दिवस आयोजित करके नागरिकों को प्रदूषण की समस्या से अवगत कराने के लिए सेमिनार गोष्टियां और रैलियां तक होंगी। इनका मकसद मुख्य उद्देश्य पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाना नहीं बल्कि राजनीतिक रोटियां सेकना मुख्य काम दिखाई देता है। ये आयोजन अवाम की चेतना कुंद करने का काम भी साथ ही साथ कर रहे है, क्योंकि इनसब की मांग बहुत सतही और तात्कालिक है। जबकि समस्या बहुत गंभीर हो चुकी है।
 
एक तरफ पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 19 नवंबर 1986 से पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। इसमें जल, वायु, भूमि - इन तीनों से संबंधित कारक तथा मानव, पौधों, सूक्ष्म जीव, अन्य जीवित पदार्थ आदि पर्यावरण के अंतर्गत लाने का कानूनी प्रयास किया गया। वहीं दूसरी तरफ पहाड़ों, जंगलों नदियों और प्राकृतिक संपदाओं का दोहन करने के लिए देशी-विदेशी कंपनियां बहुत तेजी से काम कर रही हैं, और पर्यावरण का विनाश कर रही हैं। यह काम भी सरकारों के संरक्षण में हो रहा है। यह काम पूरी दुनिया में बहुत तेजी से बढ़ा है, जिसका नतीजा,  निरंतर पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।
 
पूरी दुनिया में गर्मी के प्रकोप से इस बार लाखों लोगो की जानें जा चुकी है। लीबिया दुनिया के सबसे गर्म देशों में से एक है। यहां का तापमान 58 डिग्री सेल्सियस तक रिकॉर्ड किया जा चुका है। विश्व में सऊदी अरब का तापमान 50 डिग्री के आस-पास हमेशा बना रहता है। इस बार यहां का औसतन तापमान 52 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। इराक, अल्जीरिया का अधिकतम तापमान 50 डिग्री सेल्सियस रहता है जो इस बार  50-53 डिग्री सेल्सियस तापमान तक पहुंच चुका है।
 
इस बार भारत के राजस्थान के फलोदी का सर्वाधिक तापमान 51 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया है। आसमान से सूरज लगातार आग उगल रहा है। लोगों का घर से बाहर निकलना दूभर हो गया है। वहीं दिल्ली में पारा भी 45 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। तेलंगाना राज्य में इस साल गर्मियों की शुरुआत में 309 लोगों की मौत हुई है। नालगोंडा जिले में सबसे ज्यादा 90 लोगों की मौतें हुई हैं, जबकि महबूब नगर में 44 और खम्माम में 37 लोगों की हो चुकी है। वहीं ओडिशा में इस साल गर्मी से अब तक मरने वालों की संख्या 188 से बढ़कर 191 पहुंच गई। कुल मिलाकर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में लू से मरने वाले लोगों की संख्या 1979  तक जा चुकी है।
 
देश के कई हिस्सों में पड़ रही भीषण गर्मी और लू की चपेट में आने से मरने वालों का आंकड़ा 2000 से ऊपर जा चुका है और पिछले तीन सालों में लू से 4200 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है।
 
मौसम विभाग के अनुसार देश में इस बार गर्मी के मौसम में तापमान सामान्य से एक डिग्री सेल्सियम अधिक रहेगा। इसके साथ ही भारत के मध्य और उत्तर पश्चिमी हिस्सों में गर्मी से कोई राहत मिलने की उम्मीद नहीं है।
 
एक सर्वे के अनुसार भारत के शहरी इलाकों में 2080 तक गर्मी से संबंधित मौत के मामलों की संख्या में दोगुनी बढ़ोतरी हो जाएगी। यह अनुमान भारतीय प्रबंधन संस्थान- अहमदाबाद (आईआईएम) की ओर से कराए गए अध्ययन में लगाया गया है। आईआईएम के शोधार्थी अमित गर्ग, भारतीय गांधीनगर संस्थान के विमल मिश्रा और दिल्ली आधारित गैर सरकारी संगठन ‘काउंसिल फॉर एनर्जी, इनवायरमेंट एंड वाटर’ के सदस्य हेम ढोलकिया के अनुसार 21वीं सदी के आखिर में गर्मी से संबंधित मौत के मामलों में 71 से लेकर 140 फीसदी तक वृद्धि का अनुमान है।
 
अब सवाल उठता है कि जलवायु परिवर्तन के तहत गर्मी से संबंधित मौत के मामलों में वृद्धि क्या सिर्फ एक प्राकृतिक मौत के रूप में माना जाना चाहिए या इसे लाभ आधारित व्यवस्था द्वारा दी गई मौत के रूप में देखना चाहिए। सिर्फ भारतीय नीति-निर्माताओं को ही नहीं दुनिया के सभी देशों को जलवायु परिवर्तन की चुनौती को लेकर योजना नहीं बना सकते। देश ही नहीं पूरी दुनिया के प्रबुद्ध लोगो को आम जनता के साथ मिलकर पर्यावरण को बचाने काम अपने हाथों में लेना पड़ेगा क्योंकि, दुनिया को बचाना आज की सबसे बड़ी जरुरत है।


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