फिरदौस खान
फिराक गोरखपुरी बीसवीं सदी के वह शायर हैं, जो जंगे-आजादी से लेकर प्रगतिशील आंदोलन तक से जुड़े रहे। उनकी ज़ाती जिंदगी बेहद कड़वाहटों से भरी हुई थी, इसके बावजूद उन्होंने अपने कलाम को इश्क के रंगों से सजाया। वह कहते हैं -
तू एक था मेरे अशआर में हजार हुआ
इस एक चिराग से कितने चिराग जल उठे फिराक गोरखपुरी का जन्म 28 अगस्त, 1896 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनका असली नाम रघुपति सहाय था, लेकिन उन्होंने फिराक गोरखपुरी नाम से लेखन किया। उन्होंने एमए किया और आईसीएस में चुने गए। 1920 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी, स्वराज आंदोलन में शामिल हो गए। वह डेढ़ साल तक जेल में भी रहे और यहां से छूटने के बाद जवाहरलाल नेहरू के कहने पर अखिल भारतीय कांग्रेस के दफ्तर में अवर सचिव बना दिए गए। नेहरू के यूरोप चले जाने के बाद उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया और 1930 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक बन गए। उन्होंने 1959 तक यहां अध्यापन कार्य किया।
फिराक गोरखपुरी को 1968 में पद्म भूषण और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाजा गया। अगले साल 1969 में उन्हें साहित्य का ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया। फिर 1970 में उन्हें साहित्य अकादमी का मनोनीत सदस्य नियुक्त किया गया। 1981 में उन्हें गालिब अकादमी अवॉर्ड दिया गया। उनकी प्रमुख कृतियों में गुले-नगमा, गुले-राना, मशाल, रूहे-कायनात, रूप, शबिस्तां, सरगम, बज्मे-जिंदगी रंगे-शायरी, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज कायनात, चिरागां, शोला व साज, हजार दास्तान, और उर्दू की इश्किया शायरी शामिल हैं। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियां भी लिखी। उनकी उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी में दस गद्य कृतियां भी प्रकाशित हुईं।
आम तौर पर ख्याल किया जाता है कि फनकार को ऐसी बुनियाद और कमजोर हालात से बेनियाज होना चाहिए। गालिब जिंदगी भर परेशान रहे, अपनी बीवी की शिकायत करते रहे। अपनी तमाम मुस्कराहटों के साथ जीवन पद्धति निभाते रहे, इसलिए मुश्किलें आसान लगने लगीं। मंटों ने तो हंस-हंस कर जीना सीखा था। जिंदगी की सारी तल्खियां अपनी हंसी में पी गया और भी अच्छे फनकारों ने कुछ ऐसे ही जिया होगा।
29 जून, 1914 को उनका विवाह जमींदार विंदेश्वरी प्रसाद की बेटी किशोरी देवी हुआ, लेकिन वह पत्नी को पसंद नहीं करते थे। इसका उनकी जिंदगी पर गहरा असर पड़ा। बकौल फिराक गोरखपुरी, एक साहब ने मेरी शादी एक ऐसे खानदान और एक ऐसी लड़की से कर दी कि मेरी जिंदगी एक नाकाबिले-बर्दाश्त अजाब बन गई। पूरे एक साल तक मुझे नींद न आई। उम्र भर मैं इस मुसीबत को भूल नहीं सका। आज तक मैं इस बात के लिए तरस गया कि मैं किसी को अपना कहूं ओर कोई मुझे अपना समझे।
फिराक के इश्क और मोहब्बत के चर्चे आम रहे। वह इस किस्म की शौहरत चाहते भी थे। कभी-कभी खुद भी किस्सा बना लिया करते थे, ताकि जमाना उन्हें एक आदर्श आशिक समझे। वह खुद लिखते हैं- इन तकली़फदेह और दुख भरे हालात में मैंने शायरी की और आहिस्ता-आहिस्ता अपनी आवाज को पाने लगा। अब जब शायरी शुरू की तो मेरी कोशिश यह हुई कि अपनी नाकामियों और आने जख्मी खुलूस के लिए अशआर के मरहम तैयार करूं। मेरी जिंदगी जितनी तल्ख हो चुकी थी, उतने ही पुरसुकून और हयात अफजा अशआर कहना चाहता था। फिराक का ख्याल है कि इस उलझन, द्वंद्व और टकराव से बाहर निकलने में सिर्फ एक भावना काम करती है और वह है इश्क।
इश्क अपनी राह ले तो दिल क्या पूरी दुनिया जीत सकता है, बस इन दर्जों और हालात के ज्ञान की ज़रूरत हुआ करती है। फिराक का इश्क, इस दर्जे का इश्क न सही जहां खुदा और बंदे का फर्क उठ जाया करता है। फिराक का वह रास्ता न था। वह भक्ति और ईश्वर प्रेम की दुनिया के आदमी न थे। वह शमा में जलकर भस्म हो जाने पर यकीन भी नहीं रखते थे, बल्कि वह उस दुनिया के आशिक़ थे, जहां इंसान बसते हैं और उनका ख्याल है कि इंसान का इंसान से इश्क जिंदगी और दुनिया से इश्क की बुनियाद जिंस (शारीरिक संबंध) है। किसी से जुनून की हद तक प्यार, ऐसा प्यार जो हड्डी तक को पिघला दे, जो दिलो-दिमाग में सितारों की चमक, जलन और पिघलन भर दे। फिर कोई भी फलसफा हो, फलसफा-ए-इश्क से आगे उसकी चमक हल्की रहती है। हर फलसफा इसी परिपेक्ष्य, इसी पृष्ठभूमि को तलाश करता रहता है। फिराक ने जब होश व हवास की आंखें खोलीं दाग और अमीर मीनाई का चिराग गुल हो रहा था। सिर्फ उर्दू शायरी में ही नहीं, पूरी दुनिया में एक नई बिसात बिछ रही थी। कौमी जिंदगी एक नए रंग रूप से दो चार थी। समाजवाद का बोलबाला था। वह समाजवाद से प्रभावित हुए। प्रगतिशील आंदोलन से जु़ड़े वह स्वीकार करते हैं इश्तेराकी फलसफे ने मेरे इश्किया शायरी और मेरी इश्किया शायरी को नई वुस्अतें (विस्तार) और नई मानवियत (अर्थ) अता की। अब उनकी शायरी में बदलाव देखने को मिला। बानगी देखिए-
तेरा फिराक तो उस दम तेरा फिराक हुआ
जब उनको प्यार किया मैंने जिनसे प्यार नहीं
फिराक एक हुए जाते हैं जमानों मकां
तलाशे दोस्त में मैं भी कहां निकल आया
तुझी से रौनके-बज्मे-हयात है ऐ दोस्त
तुझी से अंजुमने-महर व माह है रौशन
जिंदगी को भी मुंह दिखाना है
रो चुके तेरे बेकरार बहुत
हासिले हुस्नो-इश्क बस है यही
आदमी आदमी को पहचाने
इस दश्त को नगमों से गुलजार बना जाएं
जिस राह से हम गुजरें कुछ फूल खिला जाएं
अजब क्या कुछ दिनों के बाद ये दुनिया भी दुनिया हो
ये क्या कम है मुहब्बत को मुहब्बत कर दिया मैंने
क्या है सैर गहे ज़िंदगी में रुख जिस सिम्त
तेरे ख्याल टकरा के रह गया हूं मैं
फिराक गोरखपुरी कहा करते थे- शायरी उस हैजान (अशांति) का नाम है, जिसमें सुकून के सिफ़ात (विशेषता) पाए जाएं. सुकून से उनका मतलब रक्स की हरकतों में संगीत के उतार-च़ढाव से है...उनके कुछ अशआर देखिए -
रफ्ता-रफ्ता इश्क मानूसे-जहां होता गया
खुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम
मेहरबानी को मुहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त
आह अब मुझसे तेरी रंजिशें बेजा भी नहीं
बहुत दिनों में मुहब्बत को यह हुआ मालूम
जो तेरे हिज्र में गुजरी वह रात, रात हुई
इश्क की आग है वह आतिशे-सोज फिराक
कि जला भी न सकूं और बुझा भी न सकूं
मुहब्बत ही नहीं जिसमें वह क्या दरसे-अमल देगा
मुहब्बत तर्क कर देना भी आशिक ही को आता है
एक मुद्दत से तेरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
तेरी निगाहों से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया है रगे जां में नश्तर फिर भी
फिराक गोरखपुरी का देहांत 3 मार्च, 1982 को नई दिल्ली में हुआ. बेशक वह इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उन्होंने जनमानस को अपनी शायरी के जरिए जिंदगी की दुश्वारियों में भी मुस्कुराते रहने का जो पैगाम दिया, वह हमेशा मायूस लोगों की रहनुमाई करता रहेगा। बकौल फिराक गोरखपुरी -
अब तुमसे रुख्सत होता हू, आओ संभालो साजे-गजल
नये तराने छेड़ो, मेरे नगमों को नींद आती है...