प्रत्येक देश का साहित्य अपने देश की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिस्थिति से संबद्ध होता है। साहित्यकार अपने देश की अतीत से प्राप्त विरासत पर गर्व करता है, वर्तमान का मूल्यांकन करता है और भविष्य के लिए सपने बुनता है और इस प्रकार कहा जा सकता है कि वह राष्ट्रीय आकांक्षाओं से परिचालित होता है।
राष्ट्रीयता को अंतरराष्ट्रीयता के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की कोशिश की जानी चाहिए। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की मान्यता के आधार पर कहें तो साहित्य मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडलों से ऊपर उठाकर लोक सामान्य की भावभूमि पर ले जाता है, जहां जगत की विभिन्न गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है।
भारत जैसे देशों के संदर्भ में राष्ट्रीयता के संदर्भ में कुछ दुविधाएं और हैं। भारत मिश्रित संस्कृतियों का संघ है अथवा यह भी कह सकते हैं कि वह कई राष्ट्रीयताओं का संघीकृत राज्य है। उपर्युक्त संदर्भ को भारत की आंतरिक समाज व्यवस्था पर घटाने का प्रयास करें तो भी स्थिति कुछ सहज नहीं होगी।
आज भी हमारी मौलिक समस्याएं क्या हैं? वर्तमान साहित्यकारों के लिए आज भी भारत की मौलिक समस्या भूख, गरीबी, बेरोजगारी, असमानता, आइडेंटिटी क्राइसिस आदि ही हैं। राष्ट्रीयता को सामान्यत: राजनीतिक परिदृश्य में ही व्याख्यायित करने की कोशिश की जाती है।
भारत में राष्ट्रवाद का उदय उन परिस्थितियों में हुआ है, जो परिस्थितियों को राष्ट्रवाद में बढ़ावा देने के बजाए बाधाएं पैदा करती हैं, परंतु आधुनिक साहित्य ने राष्ट्रवाद को विकास करने में अहम भूमिका निभाई है। यही कारण है कि भारत की जनसंख्या बहुधर्मी-बहुजातीय एवं बहुभाषी होने के बाद भी राष्ट्रवाद की ओर अग्रसर है। इसका श्रेय आधुनिक हिन्दी साहित्य को जाता है। वर्तमान साहित्य में लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना को लेकर छटपटाहट यहां देखी जा सकती है।
साहित्य अब सामाजिक सक्रियता की ओर बढ़ना चाहता है। परिवर्तन की अदम्य चाह में कवि ‘एक्टिविस्ट’ के तौर पर ‘कलम की ताकत’ को नई भूमिका में 21वीं सदी में प्रस्तुत कर रहा है। आज का समय उस दौर का साक्षी है, जहां मनुष्य के अमानवीकरण की गति में तीव्रता आई है। वैचारिक दृष्टि से समाजवाद का स्वप्न ध्वस्त हुआ है, तो यांत्रिक सभ्यता का कहर भी विद्यमान है। मानवता को खूंटियों पर टांग देने का प्रयास हो रहा हो। आज साहित्यकार को न केवल आक्रोश व्यक्त करना होता है, बल्कि वह उस विचारहीनता को चुनौती दे रहा है।
आजादी के 69 साल पूरे हो जाने पर भी हवा, पानी और रोटी की समस्या का हल नहीं होना उस भ्रष्ट तंत्र का चेहरा प्रस्तुत करता है जिसका प्रभाव इस दशक तक जारी है। आज के साहित्य का आक्रोश देर तक संयमित नहीं रह पाता। मनुष्य के राक्षस बनने की प्रक्रिया पर आज का साहित्य उस विचारहीन, बेढाल, निर्द्वंद्व अथवा मरे हुए लोगों की भांति पीढ़ी पर व्यंग्य कर रहा है।
राष्ट्रीयता साहित्य सर्जना का महत्वपूर्ण पड़ाव है, पर आज राष्ट्रीयता को एक संकीर्ण अवधारणा के रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है, विशेषकर उन पश्चिमी शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवियों द्वारा, जो औपनिवेशिक दासता को पीठ पर लादकर प्रसन्न हैं तथा राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता के राजनीतिक आयाम को ही देखने के लिए अभिशप्त हैं। उत्तरदायित्वहीन हिंसा के स्वत:स्फूर्त क्रांति या साहसिकता को मूल्य नहीं देता है।
सभ्यताओं को जब ‘धर्म’ का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया गया है, तब अंधश्रद्धा ने मानवीय कटुता को जन्म दे दिया। कभी अत्यधिक मांग ने किसी का हक छीना तो ‘नक्सली’चिंताओं ने समाज की व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगा दिए। जातीय उन्माद, प्रतिहिंसा के भाव और प्रतिशोध की चिंगारी लिए इस नई सदी का प्रवेश हुआ। आज का साहित्यकार आक्रोश का सर्जक होने के बावजूद अराजकतावादी मूल्यों का विरोधी है। वह संगठित व सुसंबद्ध सामाजिक क्रांति का समर्थक है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भी अपने निबंधों में प्राचीन भारतीय संस्कृति के उदात्त स्वरूप को प्रत्यक्ष कर नई पीढ़ी को उसके महत्व से परिचित कराया है। राष्ट्रीयता का एक अन्य पक्ष वहां दिखाई देता है, जहां रचनाकार अपनी रचनाओं में वर्तमान के प्रति चिंता व्यक्त करता है, देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करता है, इन स्थितियों में सुधार की कामना करता है, जनता का आह्वान करता है और स्वयं सक्रियतापूर्वक भाग भी लेता है। स्वतंत्रता संघर्ष के आरंभिक काल से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तथा उसके बाद की अनेक रचनाएं इसका उदाहरण हैं।
विचारधारा का जितना तरल इस्तेमाल साहित्य में होगा, साहित्य उतना ही विशिष्ट होगा अन्यथा उसके प्रचार सामग्री बनने की भी संभावना बनी रहती है। रचनाकार राष्ट्रीयता को साहित्य-सृजन के लिए उपजीव्य के रूप में ग्रहण करता है तो यह कार्य स्तुत्य है। इस राष्ट्रीयता का अधिष्ठान सांस्कृतिक है, राजनीतिक नहीं।
जो राष्ट्रीयता को 'नेशन स्टेट' की अवधारणा से जोड़ते हैं और उसकी तुलना पश्चिम के राष्ट्रवाद से करते हैं, वे केवल पश्चिम के चश्मे से ही चीजों को देखते हैं। वैश्वीकरण की इस अवधारणा में स्थानीयता का तत्व छूट जाता है, जबकि राष्ट्रीयता की अवधारणा में स्थानीयता का, एक क्षेत्र और भूगोल में रह रहे लोगों की समस्याओं को केंद्रीय महत्व दिया जाता है।
वर्तमान कई साहित्यकारों ने देश के स्वरूप का मनोरम चित्र उपस्थित किया। किसी ने उसकी महिमा का गायन किया। अनेक रचनाओं में भारत के अतीत का गौरव और वर्तमान स्थिति की दुरावस्था का मार्मिक चित्र है। अनेक कविताओं में चुनौती, ललकार और गर्जना के साथ बलिदान की मानसिकता भी उभरी है। इन अनेक प्रकार की रचनाओं को राष्ट्रीय चेतना का मानने में कोई समस्या नहीं है। समस्या आजादी के वास्तविक सरोकारों की खोज करने वाली रचनाओं के साथ है।
छायावाद के प्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत का यह कहना युक्तियुक्त है- 'हमारा विशाल देश राष्ट्र की भावना या कल्पना से वैदिक युग से परिचित रहा है।'
राष्ट्रीयता की भावना विकसित करने में आधुनिक साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है। राष्ट्रवाद से सामुदायिक भावना का विकास होता है और लोकतांत्रिक भावना भी राष्ट्रवाद से समृद्ध होती है। देश की रक्षा, हित, संगठन, एक समाज के जातीय स्वरूप के विकास की आकांक्षा, कोशिश राष्ट्रीय चेतना का अविभाज्य अंग है।
देश की रक्षा, उसका हित क्या केवल नारों में सुरक्षित रहता है? क्या हम राष्ट्रीय गौरव में जो गीत गाएंगे, वही राष्ट्रीयता के दायरे में आएगा? क्या 15 अगस्त और 26 जनवरी को राष्ट्रगान या देशभक्ति के फिल्मी गीत गा लेना ही हमारी राष्ट्रीयता या देशभक्ति की इति है? ये कई यक्षप्रश्न आज के साहित्यकारों को विद्रोही रचनाओं के लिए उकसाते हैं।
यदि वर्तमान में हमने कुछ खोया है तो वह है- रिश्तों की बुनियाद। दरकते रिश्ते, कम होती स्निग्धता, प्रेम और आत्मीयता इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं। राष्ट्रीयता का एक पक्ष है अपने अतीत की स्मृति। अतीत की स्मृति आत्मस्मृति है। विगत के प्रति सम्मोहन उसी समय होता है, जब हम परंपरा से विगलित हो जाते हैं... परंपरा का रिश्ता स्मृति से है, सम्मोहन से
नहीं।
अपनी संस्कृति के प्रति गौरव-बोध वस्तुत: राष्ट्रीय अस्मिता का हिस्सा है और राष्ट्रीय अस्मिता राष्ट्रबोध का अभिन्न हिस्सा है। अज्ञेय का यह कथन युक्तियुक्त है- 'संस्कृतियों का संबंध अपनी देशभूमि से होता है।'
प्रगति, विकास, संस्कृति, इतिहास-भूगोल आदि की जड़ भाषा होती है और भाषा को समृद्ध साहित्य करता है और साहित्य प्रत्येक वर्तमान को कलात्मक एवं यथार्थ रूप में समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है। मनुष्य चाहे जितनी प्रगति कर ले, विकास की डींगें हांक ले, सभ्यता का दंभ भरे, पर जब तक वह भीतर से सभ्य नहीं होता, तब तक मनुष्य की सही मायने में प्रगति नहीं हो सकती। बाहरी सभ्यता भौतिक प्रगति को दर्शाती है, तो भीतरी सभ्यता मानवता को, मानवीय मूल्यों के आदर्शों को परिलक्षित करती है।
समाज की आंतरिक और बाह्य प्रगति के लिए साहित्य हमेशा कल्पवृक्ष बना हुआ है। साहित्य की परिधि समाज का प्रत्येक हिस्सा रहा है। यहां किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रहा है। जो अन्याय व अत्याचार का शिकार हुआ, साहित्य ने खड़े होकर पीड़ित के आंसू भी पोंछे हैं। साहित्य यही करता है।
साहित्य मनुष्य को बाहर और भीतर से सभ्य बनने में मदद करता है। वास्तव में वह तन और मन की सभ्यता प्रदान करता है। जो साहित्य तन और मन की सभ्यता प्रदान करता है, वह शाश्वत साहित्य होता है। वर्तमान साहित्य प्रकृति एवं राष्ट्रीयता का मानवीकरण नहीं करता बल्कि प्रकृति, समाज एवं राष्ट्र को उसके ठोस सामाजिक संदर्भ के साथ रेखांकित करता है।