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लता जी की यादों में खोई गीतकार पं. नरेंद्र शर्मा की बेटी लावण्या शाह

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लावण्या शाह

दीदी (लता मंगेशकर) ने अपनी संगीत के क्षेत्र में मिली हर उपलब्धि को सहजता से स्वीकार किया है और उसका श्रेय हमेशा परम पिता ईश्वर को दे दिया है। पापा और दीदी के बीच पिता और पुत्री का पवित्र संबंध था जिसे शायद मैं इस संस्मरण के द्वारा बेहतर रीति से कह पाऊं। हम तीन बहनें थीं। सबसे बड़ी वासवी। फिर मैं लावण्या और मेरे बाद बांधवी। हां, हमारे ताऊजी की बिटिया गायत्री दीदी भी। पर सबसे बड़ी दीदी लता दीदी ही थीं।
 
संघर्ष का नाम ही जीवन है। कोई भी इसका अपवाद नहीं। सत्चरित्र का संबल, अपने भीतर की चेतना को प्रखर रखे हुए किस तरह अंधेरों से लड़ना और पथ में कांटे बिछे हों या फूल, उनपर पग धरते हुए, आगे ही बढ़ते जाना ये शायद मैंने अपने पिता पंडित नरेंद्र शर्मा के अलावा लता मंगेशकर से ही सीखा। उनका सानिध्य मुझे ये सिखला गया कि अपनी कमजोरियों से किस तरह स्वयं लड़ना जरूरी है। उनके उदाहरण से, हमें इंसान के अच्छे गुणों में विशवास पैदा करवाता है।

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जैसे सुवर्ण शुद्ध होता है, उसे किसी भी रूप में उठालो, वह समान रूप से दमकता मिलेगा वैसे ही दोनों को मैंने हर अनुभव में पाया। जिसके कारण आज दूरी होते हुए भी इतना गहरा सम्मान मेरे भीतर पैठ गया है कि दूरी महज एक शारीरिक परिस्थिति रह गई है। ये शब्द फ़िर भी असमर्थ हैं मेरे भावों को आकार देने में।
 
दीदी (लता मंगेशकर) ने अपनी संगीत के क्षेत्र में मिली हर उपलब्धि को सहजता से स्वीकार किया है और उसका श्रेय हमेशा परम पिता ईश्वर को दे दिया है। पापा और दीदी के बीच पिता और पुत्री का पवित्र संबंध था जिसे शायद मैं इस संस्मरण के द्वारा बेहतर रीति से कह पाऊं। हम तीन बहनें थीं। सबसे बड़ी वासवी। फिर मैं लावण्या और मेरे बाद बांधवी। हां, हमारे ताऊजी की बिटिया गायत्री दीदी भी। पर सबसे बड़ी दीदी लता दीदी ही थीं। उनके पिता पंडित दीनानाथ मंगेशकर जी के देहांत के बाद 12 वर्ष की नन्ही सी लडकी के कन्धों पर मंगेशकर परिवार का भार आ पड़ा था जिसे मेरी दीदी ने बहादुरी से स्वीकार कर लिया और असीम प्रेम दिया अपने भाई बहनों को जिनके बारे में तमाम किस्से मशहूर हैं और पत्र पत्रिकाओं में आ भी गए हैं। 
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लता दी की मुलाक़ात पापा से मास्टर विनायक राव जो सिने तारिका नंदा के पिता थे, के घर पर हुई। दीदी ने "मैं बन के चिड़िया, गाऊं चुन चुन चुन" ऐसे शब्दों वाला एक गीत पापा को सुनाया था और तभी से दोनों को एकदूसरे के प्रति आदर और स्नेह पनपा। दीदी जान गई थीं। पापा उनके शुभचिंतक हैं। संत स्वभाव के गृहस्थ कवि के पवित्र ह्रदय को समझ पाईं दीदी और शायद उन्हें अपने बिछड़े पिता की छवि दिखलाई दी थी पापा में।
 
वे हमारे खार के घर पर आई थीं जब हम सब बच्चे अभी शिशु अवस्था में थे और दीदी अपनी संघर्ष यात्रा के पड़ाव एक के बाद एक सफलता से जीत रहीं थीं। संगीत ही उनका जीवन था। गीत सांसों के तार पर सजते और वे बंबई की उस समय की लोकल ट्रेन से स्टूडियो पहुंचतीं जहां रात देर में ही अकसर गीत का ध्वनिमुद्रण सम्पन्न किया जाता चूंकि उसी समय बंबई का शोर शराबा थम पाता था।
 
कई बार वह भूखी ही बाहर पड़ी किसी बेंच पर सुस्ता लेतीं थीं। इंतजार करते हुए सोचतीं, ‘कब गाना गाऊंगी। पैसे मिलेंगे और घर पर माई, बहन और छोटा भाई इंतजार करते होंगें। उनके पास पहुंचकर आराम करूंगी।’ दीदी के लिए माई कुरमुरोँ से भरा कटोरा ढक कर रख देतीं थी जिसे दीदी खा लेतीं थीं। पानी के गिलास के साथ सटक के। कहीं कुरमुरा देख लेतीं हैं उसे मुठ्ठी भर खाए बिना वे आगे नहीं बढ़ पातीं।

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हमारे पड़ोसी थे जयराज जी। वे भी सिने कलाकार थे और आन्ध्र प्रदेश से बंबई आ बसे थे। उनकी पत्नी सावित्री आंटी पंजाबी थीं। उनके घर पर फ्रीज था सो जब भी कोई मेहमान आता। हम बर्फ मांग लाते शरबत बनाने में। हम ये काम खुशी-खुशी किया करते थे। पर जयराज जी की एक बिटिया को हमारा अकसर इस तरह बर्फ मांगने आना पसंद नही था।  एकाध बार उसने ऐसा भी कहा था, "आ गए भिखारी बर्फ मांगने!" 
 
बंबई की गर्म, तपती हुई जमीन पर नंगे पैर इस तरह दौड़ कर बर्फ लाते देख लिया था हमें दीदी ने और उनका मन पसीज गया। एक दिन मैं कॉलेज से लौट रही थी। बस से उतर कर चल कर घर आ रही थी। देखती क्या हूं कि हमारे घर के बाहर एक टेंपो खड़ा है जिसपर एक फ्रिज रखा हुआ है। रस्सियों से बंधा हुआ। तेज कदमों से घर पहुंची। वहां पापा नाराज पीठ पर हाथ बांधे खड़े थे। अम्मा फिर जयराज जी के घर। दीदी का फोन आया था। फोन हमारे घर पर भी था पर वो सरकारी था जिसका इस्तेमाल पापा जी सिर्फ काम के लिए ही करते थे। दीदी अम्मा से मिन्नतें कर रहीं थीं, "पापा से कहो ना। फ्रिज का बुरा ना मानें। मेरे भाई बहन आस-पड़ोस से बर्फ मांगते हैं ये मुझे अच्छा नहीं लगता। छोटा सा ही है ये फ्रिज जैसा केमिस्ट दवाई रखने के लिए रखते हैं।"
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चित्र सौजन्य: लावण्या शर्मा शाह
हमारी शादियां हुईं तब भी दीदी बनारसी साडियां लेकर आ पहुंचीं। अम्मा से कहने लगीं, "भाभी, लड़कियों को सम्पन्न घरों से रिश्ते आए हैं। मेरे पापा कहां से इतना खर्च करेंगे? रख लो। ससुराल जाएंगी। वहां सबके सामने अच्छा दिखेगा।" हम सभी रो रहे थे और देख रहे थे दीदी को जिन्होंने उमर भर शादी नहीं की पर अपनी छोटी बहनों की शादियां सम्पन्न हों, उनके लिए साड़ियां लेकर हाजिर थीं। ममता का ये रूप आज भी आंखें नम कर रहा है। स्वर कोकिला और भारत रत्न भी वे हैं ही। पर मुझे उनका ये ममता भरा रूप ही याद रहता है।
 
(लावण्या शाह सुविख्यात गीतकार पंडित नरेंद्र शर्मा की बेटी हैं और अमेरिका में रहती हैं)
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चित्र सौजन्य: लावण्या शर्मा शाह

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