एक आम कहावत है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है, लेकिन मैं समझती हूँ कि ये गलत है। बल्कि स्त्री ही स्त्री के मन की थाह पा सकती है। उसकी पीड़ा को दिल से महसूस कर सकती है, उसके दर्द को अभिव्यक्त भी कर सकती है और यदि वह स्त्री साहित्यकार हो तो क्या कहने।
यही वजह है कि स्त्री विमर्श के दौर से मन्नू भंडारी की कहानियों से गुजरना आश्वस्तीकर है इन अर्थों में भी कि लेखिका का स्वयं स्त्री होना यहाँ किसी अकारण पक्षधरता का कारण नहीं बनता, न ही पुरुष को खलनायक का चरित्र देने का लालच होता है।
बात करते हैं 'आपका बंटी' की। एक स्त्री भावनाओं में किस कदर डूब सकती है, इसे केवल इससे ही समझ सकते हैं कि जब मन्नू जी को किसी ने एक बच्चे बंटी के बारे में बताया तो उनकी आँखों में सिर्फ बंटी के ही चित्र बनते रहे, वे सारा दिन उसी के बारे में सोचती रहीं और वे कहती हैं घर लौटकर मैंने पाया कि 'बंटी एक आकार ग्रहण करने लगा है' अनुभूति ऐसी गोया कोख में अपना अंश आकार ले रहा है। सचमुच ही एक साहित्यकार के लिए उसका साहित्य उसके शिशु की भाँति ही होता है।
एक आम कहावत है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है, लेकिन मैं समझती हूँ कि ये गलत है। बल्कि स्त्री ही स्त्री के मन की थाह पा सकती है। उसकी पीड़ा को दिल से महसूस कर सकती है, उसके दर्द को अभिव्यक्त भी कर सकती है।
अपने साहित्य को इस कदर स्वयं से जोड़ लेना ही शायद मन्नू जी की खासियत थी। पति से अलग रह रही स्त्री के मन को कठोर आवरण के भीतर बाल मन से भी कोमल बताया गया है।
जब बंटी शकुन की ढोडी पर स्थित तिल पर हाथ फिराता है, निश्चय ही उस वक्त उसे अपने दाम्पत्य जीवन से जुड़ी बातें एक कसक के साथ याद आती हैं। पहले वह उसका हाथ झटकती है फिर सहमें बंटी को पुन: लाड़ से कहती हैं - फिरा! तझे अच्छा लगता है ना? ऐसी सूक्ष्मता से नारी मन की अभिव्यक्ति विरले ही कर पाते हैं।
शकुन के जरिये एक स्त्री के मन की छटपटाहट स्पष्ट महसूस होती है, जब शकुन के सामने अजय के हस्ताक्षरयुक्त तलाक के कागज रखे होते हैं। एक अध्याय था, जिसे समाप्त होना था और वह हो गया। दस वर्ष का यह विवाहित जीवन एक अंधेरी सुरंग में चलते चले जाने की अनुभूति से भिन्न न था।
आज जैसे एकाएक वह उसके अंतिम छोर पर आ गई है, पर आ पहुँचने का संतोष भी तो नहीं है, ढकेल दिए जाने की विवश कचोट भर है। पर कैसा है यह छोर? न प्रकाश, खुलापन, न मुक्ति का अहसास। बची-खुची उम्मीदें भी खामोशी के साथ मर गई।
हस्ताक्षर करने के बाद चाचाजी दबे-ढंके अंदाज में आगे की जिंदगी के बारे में सोचने का इशारा करते हैं, तो अनायास ही शकुन का स्त्रीमन पहले तो मीरा (पति का जिस स्त्री से संबंध है) के बारे में सोचता है, जो अनदेखी है, फिर भी सामने आ खड़ी होती है, पर फिर मन कहीं और तैर जाता है और डॉक्टर जोशी का चेहरा उसके सम्मुख आ जाता है।
पति से अलगाव, फिर पति का परस्त्री से संबंध और इन सबके बीच स्वयं का डॉक्टर जोशी की ओर कुछ-कुछ आकर्षण! स्त्री इसे किस तरह 'जस्टिफाई' कर सकती है। अकेलेपन में जीते हुए किसी का सामीप्य पा लेने की इच्छा गलत तो नहीं हो सकती। शकुन को खुद कभी-कभी आश्चर्य होता है कि उम्र के छत्तीस वर्ष पार करने पर भी उसके मन में इन सब बातों के लिए किशोर उम्र वाला उल्लास भी है और यौवन वाली उमंग भी। डॉक्टर का साथ होते ही कैसे एकांत की इच्छा होने लगती है। नि:संदेह बंटी के प्रति उसका कर्तव्य बड़ा है, लेकिन उसकी अपनी इच्छाओं का क्या? जो मानसिक संबल भी चाहती है और दैहिक क्षुधा शांत करना भी।
उम्र बीत जाने से कैशौर्य और यौवन बीत नहीं जाता। ये भावनाएँ तो केवल तृप्त होकर ही मरती हैं, वरना और अधिक बलवती हो इंसान को ही मारती हैं। डॉक्टर जोशी को दी हुई साड़ी पहनकर उसकी सुप्त कामनाएँ पुन: जागृत हो उठती हैं। वह डॉक्टर को अपना सर्वस्व मान लेती है। शायद यही स्त्री की कमजोरी है, जब वह किसी को चाहती है तो पूर्णत: समर्पित होकर, लेकिन पुरुष उतने ही सपाट और 'बी प्रेक्टिकल' का जुमला उछालने वाले।
मन में उठते नारी सुलभ प्रश्न पूछने की उत्कंठा को वह दबा नहीं पाती और सपाट उत्तर सुन मन को दुखी करती है। जब वह डॉक्टर से पूछती है - 'अच्छा! क्या प्रेम सचमुच ही मात्र शारीरिक आवश्यकता और एक सुविधाजनक एडजस्टमेंट का दूसरा नाम है? क्या तुम्हें कभी अपनी पत्नी की याद नहीं आती? आती है तो क्यों और इसे तुम क्या नाम दोगे?
ये पूछकर वह सुनना चाहती थी कि डॉक्टर कह दे - 'पत्नी की याद तो उसी के साथ चली गई।' यद्यपि उसे यह सोचकर ही ग्लानि सी भी हुई। पर...
'अच्छा यही होता शकुन, कि तुम उसका जिक्र ही न करती। प्रमिला के साथ मेरा जीवन जैसा भी बीता, अच्छा या बुरा, मेरा निजी मामला था। उसे मैं किसी के साथ शेयर नहीं कर सकता। 'डॉक्टर का सपाट व गंभीर जवाब उसे हैरान व परेशान कर गया, हे भगवान! और हम औरतें हैं कि जिसे अपना मान लिया, उसके सामने दिल खोलकर रख दिया। कुछ भी निजी कहाँ रह जाता है?
वह सोचती थी, डॉक्टर से विवाह उपरांत उसे सहारे के साथ बंटी को भी तो पिता मिल जाएँगे। स्त्री और माँ के बीच का द्वंद्व शकुन के माध्यम से भली प्रकार समझा जा सकता है। लेकिन शकुन चक्की में पिसने वाली नारी नहीं, उसकी अपनी आकांक्षाएँ हैं, अपनी भावनाएँ हैं। डॉक्टर, उसके दोनों बच्चों व बंटी में तालमेल बिठाने का हरसंभव प्रयास करती शकुन की छटपटाती संवेदनाएँ तब भी नजर आती हैं, जब वह बंटी से कहती है 'तू डॉक्टर साहब को पापा क्यों नहीं कहता रे?' बंटी का जवाब - मेरे पापा तो कलकत्ता में हैं', सुनकर शकुन के भीतर की नारी टूट गई महसूस होती है। न क्रोध, न सख्ती, केवल और केवल दुख। शायद इस प्रकार के विवाह में स्त्री का प्रारब्ध यही होता है।
दूसरा पति, उसके बच्चे वह सहज ही निभा लेती है, लेकिन अपने बच्चे व उसके नए पापा के बीच सामंजस्य बैठाने में उसे खासी मशक्कत करनी पड़ती है। सब लोग केवल स्त्री से ही चाहते हैं कि वह उनकी चाहनाएँ पूरी करती रहे, चाहे वह किसी भी रूप में हो। बस, वह कुछ न चाहे। जहाँ वह चाहती है, वहीं गलत क्यों हो जाती है? ऐसा अनुचित-असंभव भी तो वह कुछ नहीं चाहती। एक सहज सीधी जिंदगी जिसमें यह महसूस किया जा सके कि वह जिंदा है। शायद स्त्री की नियती है कि सहज स्वाभाविक इच्छाएँ है उसकी, लेकिन फिर भी सब गलत, क्योंकि वह उसकी है।
और इन सबके बाद भी बच्चे के साथ न्याय न हो पाए तो एक अपराध भावना भी वही झेलती है। कभी इस बात के लिए दूसरे पति के बच्चे की गलती पर भी अपने बेटे को पीटा, क्योंकि वही अपना है। तो कभी इस बात के लिए कि अपने बेटे ने अपने पापा के पास जाने की इच्छा जाहिर की, कभी अपनी इच्छाएँ पूरी कर लेने की कुंठा उसे अपराध बोध की ओर ढकेलती है।
एक नजर में तो आपका बंटी मुख्यत: ऐसे बच्चे की कहानी ही नजर आती है, जिसके माता-पिता अलग रहे हैं, लेकिन गहराई से इस उपन्यास में डूबें तो शकुन के माध्यम से नारी मन की व्यथा, उसकी वेदना स्पष्ट अनुभव की जा सकती है। एक नारी के रूप में एक माँ, व पत्नी के रूप में उसकी पीड़ा पत्थर पर चलती छैनी की तरह अनुभव होती है।
अनेक बार ऐसा होता है कि दूसरों के अनुभव का आकर्षण इसलिए भी होता है कि कहीं न कहीं हम स्वयं भी उस अनुभव से जुड़े होते हैं। शायद इसीलिए मन्नूजी स्त्री विमर्श को बेहतर तरीके से उकेर पाईं। वे मानती हैं कि उनकी कुछ कहानियाँ उनकी मानसिक अवस्था की कहानियाँ हैं, जिनका अर्थ उन्होंने दूसरों के बहाने पाया। स्त्री के अकेलेपन और दयनीयता ने पहले तो उन्हें केवल मानवीय संवेदना के धरातल पर ही आकर्षित किया, मगर बाद में 'अकेली' की सोमा बुआ के अकेलेपन की व्यथा उन्हें कब अपनी सी लगने लगी, उन्हें पता ही नहीं चला।
उनकी कहानी स्त्री सुबोधिनी में भी तीन भाई-बहनों व बूढ़ी माँ की जिम्मेदारी निभाने वाली अविवाहिता नायिका का अपने बॉस से प्रेम प्रसंग पाठकों को सोचने पर मजबूर कर देता है और किशोरियों व युवतियों को यह संदेश भी कि भूलकर भी शादीशुदा आदमी के प्रेम में मत पडि़ए। इस देश में प्रेम के बीज मन और शरीर की सोच भी स्त्री सुलभ है, जो सोचती है 'चाची मारती है तो शरीर से ज्यादा मन पर मार लगती है।'
स्त्री विमर्श का यह संपूर्ण साहित्य मन्नू जी का अंश बन चुका है, जिनके हृदय में साक्षात सरस्वती विद्यमान है। उन्हें याद करते हुए लेख की समाप्ति उन्हें समर्पित इन दो पंक्तियों के साथ -
अर्चना तुम, वंदना तुम, शब्द तुम, स्वर साधना तुम
सरस्वती साहित्य सौष्ठव की स्वयं अभिव्यंजना तुम।