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ख़ुशबू हूं मैं फूल नहीं हूं जो मुरझाऊंगा!

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, सोमवार, 8 फ़रवरी 2016 (21:19 IST)
- संजय पटेल
 
साल था 1979 और इसी बरस इंदौर के शराब कांड पर एक फ़िल्म बनी थी ‘शायद’। फ़िल्म में एक गीत रफ़ी साहब ने गाया था ख़ुशबू हूं मैं फूल नहीं हूं, जो मुरझाऊंगा/ जब जब मौसम लहराएगा, मैं आ जाऊंगा…और इसके कुछ दिनों बाद रफ़ी साहब का निधन हो गया। जिस गीत का ज़िक्र मैंने किया है उसके ज़रिए रफ़ी साहब को याद कर मुझे रुलाई-सी आ जाती थी लेकिन कुछ इत्मीनान मिलता था कि रफ़ी साहब कहीं गए नहीं हैं और हमारे आसपास ही हैं। बाद में कुछ संजोग ऐसा बना कि इस गीत के शाइर निदा फ़ाज़ली साहब से मुलाक़ात हुई। 
इस गीत का ज़िक्र किया तो बोले कि आपने ख़ूब याद रखा…..मैं तो इसे तक़रीबन भूल ही गया था। दर-असल निदा साहब गीतों की लोकप्रियता का सिलसिला यूं बना कि फ़िल्म शायद का ये गीत गुम-सा ही हो गया। आज निदा फ़ाज़ली चले गए और रफ़ी साहब का ये गीत यूट्यूब पर फिर सुन रहा हूं लेकिन ज़हन में इस बार एक शाइर की याद झर रही है।
 
जगजीत सिंह ने जब अपने एलबम इनसाइट में गरज बरस प्यासी धरती पर फिर पानी दे मौला ग़ज़ल वाली गाई तो निदा साहब के क़लम का जादू फिर दिल-दिमाग़ पर चढ़कर बोला। आलोक सेठी की किताब 'मां तुझे सलाम' के विमोचन प्रसंग पर हमने जब दोपहर साढ़े तीन बजे का मुशाइरा मंसूब किया तो निदा साहब ने उसकी ख़ुलकर तारीफ़ की थी। कहने लगे रतजगे वाले कवि-सम्मेलनों और मुशाइरों को ऐसी ही तब्दीलियों की सख़्त ज़रूरत है। मैं उस मुशाइए की निज़ामत कर रहा था। आलोक श्रीवास्तव, ताहिर फ़राज़ और डॉ. राहत इंदौरी के साथ निदा फ़ाज़ली मंच पर थे। श्रोताओं का अंदाज़ था कि निदा साहब सबसे आख़िर में पढ़ेंगे। मैंने निदा साहब से पूछा आपको राहत भाई के पहले बुला लूं….बोले जब चाहो आवाज़ दे दो, पढ़ दूंगा. कहो तो आग़ाज़ ही मैं कर दूं……आज जब ज़्यादातर शाइर पहले बुलाए जाने पर संकोच ज़ाहिर करते हैं निदा साहब का अपने फ़न और शाइरी के लिए ये आत्मविश्वास क़ाबिल ए तारीफ़ था। ज़ाहिर है निदा साहब ने राहत भाई से पहले पढ़ा और ख़ूब पढ़ा. कह सकता हूं वह उनका इंदौर में यादगार रचना पाठ था।
 
दूसरी बार सन् 2014 में एक निजी कार्यक्रम में उन्हें बुलाने का मौक़ा आया।  फ़ीस पूछी तो बोले लेता तो कुछ ज़्यादा हूं लेकिन तुम जो दे दोगे चलेगा। मुम्बई से इंदौर आते वक़्त फ़्लाइट चूक गए। छ: हज़ार में अगली फ़्लाइट की टिकिट ख़रीद कर इंदौर पहुंचे। बढ़िया मजमा जमा। दूसरे दिन एयरपोर्ट पर हम उनके पारिश्रमिक के साथ यात्रा व्यय की अतिरिक्त राशि भी देने लगे जो उन्होंने दूसरी फ़्लाइट लेने के लिए चुकाई थी। निदा भाई नाटकीय रूप से नाराज़ हो गए और बोले- भई ग़लती मेरी है…एयरपोर्ट देरी से आया था…..आप क्यों पेमेंट करेंगे। इन दो वाक़यात से आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि क्यों शाइर की तासीर अलग होती है और क्यों वह एक अलग अंदाज़ में अपनी बात कहने की ताक़त रखता है।
 
वे अपनी क़िस्म के अलग शाइर थे। पढ़ने का अंदाज़ बड़ा निराला था। तेवर बड़ा ठसकेदार और साफ़गोई से बात करने के हामी। मूलत: वे नज़्म के शाइर थे। पिता पर उनकी रचना हर फ़ादर्स डे पर आपको अख़बारों/ पत्रिकाओं में पढ़ने को मिल जाएगी। दोहों को लेकर निदा फ़ाज़ली ने विलक्षण काम किया है।  
बच्चा बोला देख कर, मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान।
 
घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूं कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाए 
जैसे प्रगतिशील नज़रिए के शे’र को आलमी लोकप्रियता मिली।
 
निदा फ़ाज़ली ने जगजीत सिंह के लिए लिखा था..दुनिया जिसे कहते हैं…जादू का खिलौना है…मिल जाए तो मिट्टी है…खो जाए तो सोना है… (8 फ़रवरी) जगजीतसिंह का जन्मदिन…..क्या निदा साहब अपने मेहबूब गुलूकार से मिलने हमसे दूर चले गए हैं….?
अपनी मर्ज़ी से कहां अपने सफ़र के हम हैं
रुख हवाओं का जिधर को है उधर के हम हैं।
(तस्वीर निदा फ़ाज़ली की अंतिम इंदौर यात्रा की है)

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