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मानवीय चेतना के अप्रतिम प्रहरी थे लियू श्याबाओ

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हमें फॉलो करें Nobel laureate Liu Xiaobo
-रामचन्द्र राही
 
यकृत कैंसर की घातक बीमारी से जूझते हुए 61 वर्षीय लियू श्याबाओ ने हाल ही में 13 जुलाई 2017 को चीन के एक अस्पताल में आखिरी सांस ली। लियू विश्व स्तर के एक चोटी के दार्शनिक, कवि हृदय एवं उदात्त मानवीय चेतना के प्रतीक पुरुष थे। 15 जुलाई 2017 को उनका अंतिम संस्कार किया गया और उनकी अस्थियों को समुद्र में बिखेर दिया गया ताकि उनकी यादगार को कायम रखने की दृष्टि से स्मारक जैसा भविष्य में भी कोई कुछ बना न सके।
 
लियू मानवाधिकार और लोकतंत्र के लिए चीन में जीवनभर संघर्ष करते रहे और अपनी इसी लगन और निष्ठा के कारण उन्हें चीनी सत्ता ने जेल की सजा दी थी। जेल में ही उन्हें लिवर कैंसर की बीमारी हुई, लेकिन उन्हें इलाज के लिए चीन से बाहर जाने की इजाजत नहीं दी गई। चीनी सरकार ने बस इतनी कृपा की कि उनकी पत्नी और कुछ मित्रों-संबंधियों को अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति दी।
 
4 जून 1989 को चीन की राजधानी के थ्येन-आन-मन चौक पर लोकतंत्र की मांग करते हुए जब चीनी छात्रों ने विराट प्रदर्शन किया था और जिसे चीनी राजसत्ता ने युद्धक टैंकों से रौंद दिया था जिसमें हजारों लोग मारे गए थे, लाखों लोग जेल में डाले गए थे, तो चीन के उस लोकतंत्र अभियान में लियू भी एक प्रमुख कारक थे।
 
इस ऐतिहासिक त्रासदी से पूर्व 2 जून 1989 को प्रदर्शनकारियों द्वारा यह घोषणा पत्र जारी किया गया था कि 'हम शांतिमय साधनों से चीन में लोकतंत्र के प्रसार के समर्थक हैं और हम किसी भी प्रकार की हिंसा के खिलाफ हैं... हम हिंसा से डरते नहीं! हमारा उद्देश्य है कि शांतिमय साधनों से यह सिद्ध करना कि चीन के लोग, जो लोकतंत्र चाहते हैं, अंत में इस अलोकतांत्रिक व्यवस्था को, जो संगीन और झूठ के बल पर टिकी है, अपनी दृढ़ संकल्पशक्ति से खत्म करके रहेंगे।'
 
लियू द्वारा प्रेरित लोकतंत्र के लिए प्रख्यात घोषणा पत्र 8 में यह स्पष्ट किया गया कि 'दुनिया के प्रमुख देशों में एक हमारा ही देश ऐसा है, जो सर्व सत्ताधिकारवादी राजनीति के दलदल में फंसा पड़ा है... यह स्थिति बदलनी चाहिए... अवश्य बदलनी चाहिए। चीन की राजनीति के लोकतंत्रीकरण को अब और अधिक समय तक टाला नहीं जा सकता।'
 
इस घोषणा पत्र के जारी किए जाने के बाद लियू को चीनी सरकार ने दिसंबर 2008 में गिरफ्तार किया और 25 दिसंबर 2009 को उन्हें 11 साल की कैद की सजा सुनाई गई। उन पर 'राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह' का आरोप लगाया गया।
 
लियू श्याबाओ को 2010 में अंतरराष्ट्रीय नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया, लेकिन 10 दिसंबर 2010 को आयोजित इस शांति पुरस्कार वितरण समारोह के अवसर पर वे चीनी जेल में ही बंद रहे। उन्हें समारोह में शामिल होने के लिए ओस्लो (नॉर्वे) जाने की इजाजत चीनी सरकार ने नहीं दी और समारोह में खाली पड़ी उनकी कुर्सी पर पुरस्कार का प्रतीक चिन्ह रखकर कार्यक्रम संपन्न किया गया। तब से उनकी पत्नी को भी उनके घर में नजरबंद कर दिया गया था। उन्हें अपने पति लियू से जेल में मुलाकात का मौका कभी-कभी ही दिया जाता था। 

 
जीवन के आखिरी 28 वर्षों में लियू को लगभग 13 साल जेल में ही बिताने पड़े लेकिन मानवाधिकार और लोकतंत्र के प्रति उनकी आस्था निरंतर दृढ़ से दृढ़तर होती गई। उन्होंने लिखा है- 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानवाधिकार की बुनियाद है, मानवता की प्रेरणास्रोत है और सत्य की जननी है। अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटने का मतलब है मानवाधिकार को कुचल देना, मानवीयता को समाप्त कर देना और सत्य का दमन कर डालना।'
 
लेकिन आश्चर्य है कि स्वयं को पूरे विश्व का मानवाधिकार संरक्षक मानने वाले यूरोप और अमेरिका ने चीनी सरकार के इस कृत्य के खिलाफ कभी भी जोरदार आवाज नहीं उठाई। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति के रूप में विकसित जो हो रहा है। आर्थिक शक्ति ही सर्वोपरि है, वहीं तथाकथित सभ्यता-संस्कृति की पहचान और मानदंड भी है।
 
भौतिक विकास के चरम पर पहुंचते विश्व में इस विकास का दूसरा अनिवार्य रूप से विकसित हो रहा पक्ष है राज्यसत्ता का सर्वाधिकारवादी दमनकारी स्वरूप और दुनिया की प्राय: सभी सरकारें इस दुष्चक्र में फंसी पड़ी हैं। राज्यसत्ता की बढ़ती शक्ति के साथ-साथ उसकी वैधानिक एवं संगठित हिंसाशक्ति व दंडशक्ति का भी स्वाभाविक विकास दुनिया में हो रहा है और जहां कहीं भी मानवाधिकारों, वास्तविक लोकतांत्रिक अधिकारों की आवाज आम जनता एवं मानवीय चेतना के जागरूक प्रहरियों द्वारा उठाई जाती है, राज्यसत्ता इस संगठित हिंसाशक्ति, दंडशक्ति से उसे दबाने-कुचलने का प्रयास करती दिखाई पड़ती है।
 
बावजूद इसके, विश्व पटल पर हिंसा-प्रतिहिंसा से इतर एक मानवीय चेतना की प्रतिरोधक, प्रतिशोधक नहीं, शांतिमय शक्ति भी विकसित हो रही है और उसके परिणामस्वरूप कुछ युगांतकारी परिवर्तन के लक्षण भी विश्व में प्रकट हो रहे हैं। 
 
महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला और अब उसी कड़ी में जुड़ गए लियू श्याबाओ इतिहास में दर्ज हो रहे नई संभावनाओं के नए-नए आयाम हैं। भारत में भी हम अब लगातार और तेजी से महसूस करने को विवश हो रहे हैं कि वही बोलो, जिसकी राज्यसत्ता इजाजत देती है, वही सुनो जो राज्यसत्ता सुना रही है, वही देखो जो राज्यसत्ता दिखा रही है। इससे परे नहीं है सत्य कुछ भी, कोई भी। यह युग सत्य से परे है, पोस्ट ट्रुथ येरा है यह!
 
लेकिन यह सत्ता, संपत्ति, संप्रदाय एवं तकनीकी और विज्ञापनी आभासी सत्य टिकने वाला नहीं है। इस धरती पर मानवीय चेतना में इस आभासी सत्य को खत्म करने की ताकत है और वह स्वयं भी अपने अंतरविरोधों के कारण खत्म होने ही वाला है। 
 
मानवीय चेतना के अप्रतिम प्रहरी लियू श्याबाओ ने गांधी की तरह अन्याय-अत्याचार के विरुद्ध लड़ने वाली आत्मशक्ति को उजागर किया था।
 
(रामचन्द्र राही वरिष्ठ गांधी विचारक व केंद्रीय गांधी स्मारक निधि के अध्यक्ष हैं।)

-  सप्रेस

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