22 जून पुण्य-स्मृति
(भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने वर्ष 2002 में अपने आवास पर 2 जून 2002 को बाबू गुलाब राय और पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास के सम्मान में डाक टिकट जारी करते हुए जो संबोधन दिया, उसका सार-संक्षेप संपादित अंश।)
'' मुरली मनोहर जोशी, तपन सिकदर, सत्यनारायण जटिया, राजशेखर व्यास, उपस्थित देवियों एवं सज्जनों, आज के इस कार्यक्रम में भाग लेते हुए मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। मैं डाक विभाग को धन्यवाद देता हूं कि उसने राजनीति से नजर हटाकर साहित्यकारों का, संस्कृति के ज्ञाताओं का सम्मान करने का सही कदम उठाया है। राजनीति हमारे यहां आवश्यकता से अधिक ध्यान खींचती है। शायद इसका कारण ये है कि राजनीति एक दुखती हुई रग है। अगर शरीर के किसी अंग में पीड़ा है, कोई अंग स्वस्थ नहीं है, किसी विकार से ग्रस्त है तो सारे शरीर का ध्यान उसी अंग की तरफ जाता है। तो राजनीति को कोसने के बजाए उसको प्रभाप्रणित करने का प्रयास रहना चाहिए और यदि राजनीति के साथ संस्कृति का समन्वय होगा, कुछ मूल्यों के साथ राजनीति जुड़ेगी, आदर्शों से अनुप्रमाणित होगी तो राजनीति जनकल्याण के अपने उद्देश्य को पूरा करने में सफल होगी।
बाबू गुलाबरायजी से मैं अपना संबंध निकट का मानता हूं सिर्फ इसलिए नहीं कि वे इटावा के थे और मेरी मां भी इटावा की थी, लेकिन सिर्फ इसलिए कि साहित्य के विद्यार्थी के नाते मुझे गुलाबरायजी के निबंधों के उठे हुए सवालों को कभी-कभी परीक्षा में हल करना पड़ता था। उनका लेखन, उनकी समालोचना, उनकी दूरदृष्टि और हम उस समय को याद रखें, जो हिन्दी साहित्य का स्थायी लाभ करने में समर्थ हुई है। जहां तक व्यासजी का प्रश्न है, ज्योतिष के विवाद में मैं नहीं जाऊंगा। हीरे की एक अंगूठी मैं भी पहने हुए हूं लेकिन इस अंगूठी का ज्योतिष से कोई संबंध नहीं है। फलित ज्योतिष पर आवश्यकता से अधिक आश्रित होना समाज को, व्यक्ति को आलसी बना सकता है। कर्म का फल मिलेगा तो कर्म पर बल देना चाहिए और जो फल मिलेगा, उसे स्वीकार करेंगे।
इस दृष्टिकोण से अगर ज्योतिष विज्ञान को देखा जाए तो मैं समझता हूं कि समाज के कल्याण में उसका उपयोग हो सकता है और ज्ञान और विज्ञान के क्षेत्र में इसका योगदान उपयोगी हो सकता है। जहां तक व्यासजी का प्रश्न है, उनमें ज्ञान और कर्म दोनों का अपूर्व समन्वय था। महाकवि कालिदास की बात तो हम बहुत से लोग करते हैं, लेकिन महाकवि कालिदास की बात करने के बाद महाकवि कालिदास समारोह का आयोजन करना और इस बात की चिंता करना कि उज्जयिनी में यह समारोह प्रतिवर्ष मनाया जाए, इसके लिए किसी पं. सूर्यनारायण व्यास की आवश्यकता थी।
मध्यप्रदेश का जब निर्माण हुआ और राजधानी कहां होगी, यह विवाद का विषय था। उज्जैन भी दावेदार था, लेकिन भोपाल बाजी मार ले गया। क्यों ऐसा हुआ? इन कारणों में मैं जाना नहीं चाहता। लेकिन जो थोड़ी-सी क्षतिपूर्ति हुई विक्रम विश्वविद्यालय की संस्था बनाकर। लेकिन व्यासजी वहीं तक नहीं रुके। उन्होंने और भी संस्थानों का निर्माण किया। वे स्वयं में एक संस्था थे। उनकी संस्थाएं आज भी उनके नाम की कीर्ति पताका फहराती हुई अपना असर डाल रही हैं। जब हम व्यासजी का स्मरण करते हैं, उनके प्रति श्रद्धा का निवेदन करते हैं, तो वह काम हनुमान चालीसा जैसा नहीं होना चाहिए।
शोध की दृष्टि से केवल गुणगान नहीं, गुणगान तो हम सब कर सकते हैं और गुणगान तो होना भी चाहिए। गुणों को हमें ग्रहण करना है। जीवन हमारे आदर्श के रूप में आते हैं, उनसे प्रेरणा लेनी है। लेकिन शायद श्रोत्रियजी का अनुभव ऐसा है कि व्यासजी के बारे में जितना अनुसंधानात्मक कार्य होना चाहिए, उतना हुआ नहीं है। अभी समय है इस दृष्टि से आगे बढ़ा जा सकता है। मैं सुमनजी के शब्दों में व्यासजी को श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहता हूं- 'वे ऋषि, महर्षि सांदीपनी वंश की परंपराओं में शिक्षा, कला, व्याकरण, साहित्य, ज्योतिष सभी अंगों को चरितार्थ करता हुआ अपने व्यासपीठ पर आसीन जैसे उर्ध्वाबाहू उद्घोष कर रहा हो कि धर्म से ही अर्थ और काम की सिद्धि संभव है।'
उन्होंने यह भी कहा था कि- 'पं. सूर्यनारायणजी व्यास का अभिनंदन मालवा भूमि के समस्त सांस्कृतिक अनुष्ठानों का अभिनंदन है।' हम में से कितने लोग ऐसे हैं, जो यह जानते हैं कि कालिदास पर डाक टिकट भारत में प्रचारित होने से पहले सोवियत रूस में और व्यासजी की प्रेरणा से एक डाक टिकट तैयार हुआ था। हम उस ऋण को धीरे-धीरे उतार रहे हैं, लेकिन और भी स्थायी महत्व के काम करने की आवश्यकता है।
व्यासजी बड़े स्वाभिमानी थे। मध्यप्रदेश के थे, उसमें भी मध्यभारत के थे। एक अखंडपन था। सिद्धांतों के साथ समझौता नहीं करते थे। 'विक्रम' पत्रिका जब बंद होने की नौबत आ गई, तब किसी राजदरबार से उन्हें 5 हजार रुपए का चेक भेजा गया कि पत्रिका चलाते रहिए, हम थोड़ी सी सहायता दे रहे हैं।
व्यासजी ने लौटती डाक से उस चेक को वापस कर दिया, लेकिन बड़े विनम्र शब्दों यह विशेषता था। वो 5 हजार का चेक उन्होंने ग्रहण नहीं किया। पद्मभूषण को तिलांजलि दे दी। अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए उनके चिंतन में एक स्पष्टता थी। बोल्शेविक क्रांति से उन्होंने विचारों में बाराखड़ी शुरू की, लेकिन उनके जीवन के अंत में वो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रणेता प्रस्तुत रहे हैं।
उनके बारे में बहुत कुछ कहा गया है और बहुत कुछ कहा जा सकता है। मगर मैं एक बात का उल्लेख करना चाहूंगा कि उनके ज्ञान की, विज्ञान की, ज्योतिष की, अनुसंधान की चर्चा होती है, लेकिन वे एक लेखक के रूप में एक व्यंग्यकार भी थे, यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है। उन्होंने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था- 'एक और डॉक्टरेट' इस प्रकार है- 'श्रीमान महानुभाव, उपकुलपति महोदय, भूचाल विश्वविद्यालय, भूचाल मध्यप्रदेश- श्रीमन मैं कॉलेज का उपाधिकारी हूं और डॉक्टरेट के लिए प्रबंध लिखना चाहता हूं। मेरा विषय है- रासभ-राज, रासभ-राज गधे का ऐतिहासिक सांस्कृतिक अध्ययन। यह विषय सर्वदा मौलिक महत्व का है, किसी भी देश के विश्वविद्यालय में जो प्रगतिशील कहलाते हैं। जहां तक मेरी जानकारी है, इस नवीन महत्वपूर्ण विषय पर कोई थीसिस नहीं लिखी गई है। मेरा इस विषय पर वर्षों अध्ययन है। यह कहने पर संकोच अवश्य है, मुझे आपत्ति नहीं होगी, मेरा अपना काम हो जाएग। गाइड का नाम नाहक हो जाएगा। यह आपकी सुविधा के लिए लिख रहा हूं, वैसे मेरा उचित गाइड कोई कुम्हार ही बन सकता है। वो मेरे विषय में किसी प्रोफेसर से ज्यादा ही जानता होगा, पर चूंकि वो आपके विश्वविद्यालय के सदस्यों को और संभवत: आपको भी स्वीकार नहीं होगा। जो भी हो मेरा सिनोप्सिस स्वीकार कर अपनी संस्था से डॉक्टरेट करने की अनुमति दें। मेरा निबंध सभी विश्वविद्यालयों में अपूर्व महत्वपूर्ण एवं सर्वदा मौलिक सिद्ध होगा, साथ ही आपकी संस्था को गौरवान्वित करने में समर्थ होगा, धन्यवाद।
वे इतना सुंदर व्यंग्य लिखते थे, इसकी बहु्तों को कल्पना नहीं है। उनके गंभीर लेखों के बारे में लोग जानते हैं, उसका सम्मान करते हैं, लेकिन व्यंग्यकार के नाते वे कितनी ही चोट कर सकते थे, मगर उस चोट को सहलाते भी जाते थे, यह कला उन्हीं में थी। गधे का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक अध्ययन, समाजवादी दृष्टिकोण से गधे का उद्भव, विकास और व्यक्तित्व, प्राण शास्त्री अध्ययन एक सामाजिक प्राणी के रूप में इतिहास की परंपरा, समाज में गधे की उपयोगिता, सामाजिकता आदि का उदाहरण वैदिक साहित्य से लेकर पौराणिक परंपरा का प्राय: इतिहास से लेकर ईसा से मूसा तक का महत्व, ऐसे हास्य कम लिखे जा रहे हैं।
व्यासजी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने समाज के व्यापक रूपों को ध्यान में रखकर कार्य किया। उनकी स्थिति के बारे में हम लोग आज पूरा विचार नहीं कर सकते हों, लेकिन जिन कठिन दिनों से निकलकर उन्होंने अपने लिए इतना बड़ा स्थान प्राप्त किया, वह इस बात की साक्षी है व्यक्ति अपने पुरुषार्थों को आगे बढ़ने का संकल्प कर ले तो कोई बाधा सामने नहीं आ सकती है। मैं अपने इन्हीं शब्दों के साथ दोनों महानुभावों को श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं और समारोह का आयोजन करने वालों को धन्यवाद देता हूं।
प्रस्तुति : डॉ. राजशेखर व्यास