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कितने प्रासंगिक हैं विवेकानंद के विचार ?

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संदीप तिवारी

हर महापुरुष अपने समय की स्थिति के बारे में सोचता, समझता और अपने विचार रखता हैं। जो  गरीबी, शिक्षा, खेती, महिला सशक्तिकरण और अन्य बड़ी समस्याओं स्वामी विवेकानंद के समय में थी , वे आज भी समाप्त नहीं हुई हैं। उस समय पर विवेकानंद ने भी विचार किया था और इनका सामना करने के तरीके भी बताए थे लेकिन आज के सत्तारूढ़ लोगों को इन पर गौर करने की फुर्सत ही नहीं है। इतना ही नहीं, इन ज्ञानी-पंडितों ने अपनी सुविधा के अनुसार तरह-तरह के विवेकानंद भी गढ़ लिए हैं।  
कुछ समय पहले एक चर्चित साप्ताहिक पत्रिका ने स्वामी विवेकानंद पर विशेषांक निकाला था। इसमें छपे अपने लेख में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी का कहना था, ‘हमारे जीवन में स्वामी विवेकानंद एक ऐसे तारे के रूप में हैं जो ज्ञान और उम्मीदों से भरा है। उन्होंने यह साबित किया है कि बगैर देह के भी वे हर जगह के लोगों को हर वक्त प्रेरित करते रहेंगे। आइए हम सब मिलकर उनके बताए रास्ते पर आगे बढ़ें।’ विवेकानंद से प्रेरित होने वाले लोगों की एक लम्बी परम्परा रही है लेकिन दुख की बात है कि उन्हें भी मात्र एक 'राजनीतिक प्रतीक' की भांति इस्तेमाल किया जाता है और उनकी महानता को अज्ञानता के गर्त में धकेल दिया जाता है। 
 
गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने एक बार कहा था, ‘यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए।’ लेकिन यह सिर्फ जानने भर की बात नहीं है वरन कई जानकार लोग मानते हैं कि इस देश की समस्याओं के लिहाज से भी विवेकानंद के विचार उनके जाने के एक सदी बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं- न सिर्फ भारत के नीति निर्धारकों के लिए बल्कि विकास की पश्चिमी अवधारणा का अंधानुकरण करते उसके समाज के लिए भी जोकि आज भी उनके विचारों की उपेक्षा ही करता है।
 
देश की गरीबी
 
स्वामी जी को पता था कि देश में गरीबी कितनी है?  इस बारे में सबसे चर्चित आंकड़ा अर्जुन सेनगुप्ता की अगुवाई वाली एक समिति का है। इस समिति ने कुछ साल पहले यह अनुमान लगाया था कि देश की 77 फीसदी आबादी रोजाना 20 रुपए से कम पर गुजर बसर करने को मजबूर है। गरीब और गरीबी को लेकर किस तरह का रवैया अपनाया जाना चाहिए, यह बताते हुए विवेकानंद कहते हैं, ‘हर व्यक्ति को भगवान की तरह देखो। आप किसी की मदद नहीं कर सकते, बस उसकी सेवा कर सकते हैं। अगर आपके पास अधिकार हैं तो यह समझें कि भगवान के बच्चों की सेवा खुद उसकी ही सेवा है। गरीबों की सेवा का काम पूजा भाव से करो।’ वे आगे कहते हैं, ‘जब तक करोड़ों लोग भूखे और वंचित रहेंगे तब तक मैं हर उस आदमी को गद्दार मानूंगा जिसने गरीबों की कीमत पर शिक्षा तो हासिल की लेकिन, उनकी चिंता बिल्कुल नहीं की।’
 
विवेकानंद की इन दो बातों से साफ है कि वे इस बड़ी समस्या का समाधान गरीबों के लेकर रवैए में बदलाव’ के रूप में दे रहे हैं। एक बड़ा वर्ग मानता है कि आज अगर देश के नीति निर्धारक गरीबों को लेकर सिर्फ अपना रवैया बदल लें तो फिर जो नीतियां बनेंगी, वे असल मायनों में गरीबों के हित में होंगी। लेकिन 'क्रोनी कैपिटलिज्म' और 'देशभक्ति और राष्ट्रवाद को ओड़ने, बिछाने और पहनने वाले चिंतकों के देश के प्रधानमंत्री' ही लाखों का सूट पहनता है तो क्या ऐसे लोगों को कोई सादगी और सात्विकता सिखा सकता है? देश में संसाधनों की लूट है जिसमें से ज्यादा से ज्यादा हिस्सा उन लोगों के पास है जो पहले से धनकुबेर हैं और गरीब, आदिवासियों के थोड़े से पैसों को भी कालाधन बताया जाता है।
 
खेती का सर्वनाश 
 
भले ही देश की 70 फीसदी आबादी अब भी गुजर-बसर के लिए कृषि पर निर्भर हो लेकिन किसान और किसानी की दुर्दशा किसी से छिपी हुई नहीं है। कहने को तो सरकार हर साल बजट में किसानों के कल्याण के लिए लंबे-चौड़े वादे करती है। लेकिन बड़ी-बडी योजनाओं और कर्ज माफी की घोषणाओं होने के बावजूद हजारों की संख्या में किसान आत्महत्या क्यों करते हैं?  ये खबरें बताती हैं कि जमीनी हाल एक बड़ी हद तक बदतर ही हुए हैं।
 
किसान और किसानी की समस्याओं के समाधान के बारे में स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘किसानों की समस्या का समाधान शिक्षा के जरिए किया जा सकता है। भारत अब भी ज्ञान के सीमित प्रसार की राह पर चल रहा है। शिक्षा को मुट्ठी भर लोगों की जागीर बनाने से काम नहीं चलेगा। एक बार ब्रिटेन में यह चर्चा गर्म हुई कि वहां के मजदूर काफी मजदूरी ले रहे हैं और जर्मनी के मजदूर सस्ते हैं। इसके बाद ब्रिटेन ने एक आयोग जर्मनी भेजा। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि जर्मनी के मजदूर अधिक मजदूरी ले रहे हैं। आयोग ने इसकी वजह शिक्षा को बताया लेकिन भारत में जोर शिक्षा को कारोबार बनाने और इसके बल पर लोगों का शोषण करने के एक साधन के तौर पर हो रहा है। जो थोड़ी बहुत शिक्षा है वह किताबी ज्यादा और व्यवहारिक कम है इसलिए वह ऐसे नौजवानों को तैयार नहीं करती है जोकि देश में डॉक्टर नॉर्मन बरलॉग जैसे वैज्ञानिक पैदा करे और जो अपने विजन से क्रांतिकारी बदलाव करें।
 
शिक्षा पर क्या कहा ?
 
शिक्षा कैसी हो, इसके बारे में स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘शिक्षा का मतलब यह नहीं है कि दिमाग में कई ऐसी सूचनाएं एकत्रित कर ली जाएं जिसका जीवन में कोई इस्तेमाल ही नहीं हो। हमारी शिक्षा जीवन निर्माण, व्यक्ति निर्माण और चरित्र निर्माण पर आधारित होनी चाहिए। ऐसी शिक्षा हासिल करने वाला व्यक्ति उस व्यक्ति से अधिक शिक्षित माना जाएगा जिसने पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर लिया हो। अगर सूचनाएं ही शिक्षा होतीं तो फिर तो पुस्तकालय ही संत हो गए होते।’ लेकिन हमारी शिक्षा व्यवस्था की बच्चों को रट्‍टू तोता बनाने वाली है जिसमें दिमाग का उपयोग ही नहीं किया जाता है। 
 
शिक्षा के महत्व को रेखांकित करते हुए वे आगे कहते हैं, ‘यूरोप के कई शहरों की यात्रा करके मैंने यह देखा कि वहां के गरीब भी शिक्षित हैं और उनकी हालत हमारे यहां के गरीबों से बहुत अच्छी है। यह फर्क शिक्षा ने पैदा किया है। शिक्षा आत्मबल देती है।’ लेकिन देश में अच्छी शिक्षा का मतलब ऐसी पदवी या नौकरी पाना है जोकि ज्यादा से ज्यादा रिश्वत कमाने में मददगार हो।
 
महिला सशक्तिकरण पर उनके विचार 
 
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की सालाना रिपोर्टों को उठाकर देखा जाए तो पता चलता है कि महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले में स्थिति कितनी विकराल है। हमारे देश में अगर दूसरे देश की महिला भी सैर करने आती है तो 'गैंगरेप' जैस अनुभव लेकर जाती है। सुरक्षा के अलावा महिलाएं और भी कई मोर्चों पर समस्याओं का सामना कर रही हैं। उनके सशक्तिकरण को लेकर तमाम सरकारी योजनाओं और सैकड़ों की संख्या में गैर सरकारी संगठनों की सक्रियता के बावजूद घर से लेकर शिक्षा और रोजगार सहित हर जगह उनसे दोयम दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार होता है। जब देश की संसद में मुलायम सिंह यादव, शरद यादव और बड़ी संख्या में दुष्चरित्र, बलात्कारी लोग कानून बनाने का काम करते हों, वहां की महिलाओं की तो भगवान कृष्ण भी इज्जत नहीं बचा सकते हैं।   
 
महिलाओं की समस्याओं के समाधान के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग है लेकिन, नख-दंतविहीन यह आयोग सिर्फ नुमाइशी बनकर रह गया है। महिलाओं को सशक्त बनाने की राह सुझाते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘महिलाओं को बस शिक्षा दे दो। इसके बाद वे खुद बताएंगी उनके लिए किस तरह की सुधार जरूरत है। मामूली दिक्कतों में भी उन्हें अब तक असहाय बने रहने, दूसरों पर निर्भर रहने और आंसू बहाने का ही प्रशिक्षण दिया गया है।’लेकिन क्या देश का शासन तंत्र और राजनीति महिलाओं को सशक्त बनने देना चाहती है? बिल्कुल नहीं। ‘किसी भी देश की प्रगति का सबसे बेहतर पैमाना भले ही आप यह तय कर लें कि वह देश अपनी महिलाओं के साथ कैसा व्यवहार करता है? भारत के महानगरों में भी दिन के समय भी दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू में महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। सरे आम बलात्कार और हत्या महिलाओं की नियति बन गई हो तब इस देश के बारे में आप कितना अच्‍छा सोच सकते हैं?   
 
इसलिए इस दुनिया के कल्याण की कोई संभावना नहीं है। भारत में पुरुषों ने महिलाओं को उत्पादन मशीन बनाकर छोड़ा है। अगर महिलाओं को सशक्त नहीं बनाया गया तो फिर तरक्की का कोई रास्ता नहीं बचता है। भारत जैसे देश में इस सत्य को सबसे आसानी से देखा जा सकता है।
 
युवा सशक्तिकरण की कोई सोच है?
 
देश की 51 फीसदी आबादी की उम्र 25 साल से कम है। इस आधार पर कहना गलत नहीं होगा कि देश की प्रगति काफी हद तक युवाओं पर निर्भर करती है। लेकिन क्या इस वर्ग को वे सुविधाएं मिल रही हैं जिसके आधार पर वह सशक्त बनकर देश की प्रगति में अपनी भूमिका निभा सके? युवाओं का एक बड़ा वर्ग उसी वंचित समुदाय से है जो अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने को लेकर संघर्ष कर रहा है। जो शिक्षित युवा है उसके बारे में कॉरपोरेट जगत की अक्सर शिकायत रहती है कि उसे जो शिक्षा मिली है उसमें गुणवत्ता का अभाव है। आपराधिक घटनाओं में युवाओं की बढ़ती संलिप्तता पर अक्सर चिंता जताई जाती है। कहा जा सकता है कि जिस वर्ग पर देश की तरक्की का सबसे अधिक भार है, वही आज बहुत सी समस्याओं का सामना कर रहा है। 
 
युवाओं को राह दिखाते हुए स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘कोई भी समाज अपराधियों की सक्रियता की वजह से से गर्त में नहीं जाता बल्कि अच्छे लोगों की निष्क्रियता इसकी असली वजह है। इसलिए नायक बनो। हमेशा निडर रहो। यह डर ही है जो दुख लाता है और भय की वजह है अपने आसपास को नहीं समझना। कुछ प्रतिबद्ध लोग देश का जितना भला कर सकते हैं उतना भला कोई बड़ी भीड़ एक सदी में भी नहीं कर सकती। मेरे बच्चो, आग में कूदने के लिए तैयार रहो। भारत को सिर्फ उसके हजार नौजवानों का बलिदान चाहिए।’लेकिन जिनके पास शिक्षा है वे तो 'ग्रेट अमेरिकन ड्रीम' पूरा करने चले जाते हैं और सारी उम्र पैसा कमाने में लगे रहते हैं।
 
युवाओं को सफलता का सूत्र देते हुए विवेकानंद कहते हैं, ‘कोई एक विचार लो और उसे अपनी जिंदगी बना लो। उसी के बारे में सोचो और सपने में भी वही देखो। उस विचार को जियो। अपने शरीर के हर अंग को उस विचार से भर लो। सफलता का रास्ता यही है। जब तुम कोई काम कर रहे हो तो फिर किसी और चीज के बारे में मत सोचो। इसे पूजा की तरह करो। इस दुनिया में आए हो तो अपनी छाप छोड़कर जाओ। ऐसा नहीं किया तो फिर तुझमें और पेड़-पत्थरों में अंतर क्या रहा? वे भी पैदा होते हैं और नष्ट हो जाते हैं’लेकिन सच बात तो यही है कि हमारे देश में ऐसे जागृत युवा बहुत ही कम संख्या में पैदा होते हैं और वे केवल उदाहरण बनकर रह जाते हैं। ऐसे लोग अपने जीते जी कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं कर पाते हैं। अगर आप स्वामी जी जीवित होते तो क्या वे इस देश की हालत पर गर्व करते? शायद नहीं और यह सब हमारी कमजोरियों, कमियों का नतीजा है।

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