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इस सुखाड़ का जिम्मेदार कौन?

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राजकुमार कुम्भज
तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं की मान्यता वाले देश में इस बरस के सूखे से 33 करोड़ लोग प्रभावित हुए हैं और यह केंद्र सरकार द्वारा बताया गया एक अधिकृत आंकड़ा है, जबकि एक गैर-सरकारी सर्वेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक सूखा प्रभावित लोगों की संख्या 54 करोड़ के पार बताई गई है। बहस जारी है। देश का तकरीबन आधा हिस्सा भयंकर सूखे की चपेट में है, जबकि उपलब्ध कुओं में से तकरीबन 50 फीसदी कुओं का जलस्तर तेजी से घट रहा है।


केंद्रीय ग्रामीण विकास एवं पेयजल मंत्री चौधरी वीरेन्द्रसिंह और केंद्रीय कृषिमंत्री राधामोहनसिंह की सहर्ष स्वीकारोक्ति के मुताबिक देश के 13 राज्य सूखाग्रस्त हैं। इन राज्यों में पेयजल संकट से निपटने के लिए केंद्र सरकार ने 823 करोड़ रुपए जारी किए हैं, किंतु देश में पेयजल संकट की स्थिति इतनी अधिक विकराल है कि उसे देखते हुए उक्त राशि का प्रावधान पर्याप्त नहीं कहा जा सकता है। बढ़ते जा रहे सुखाड़ को देखते हुए समाधान के उपाय भी बढ़ाना ही होंगे।
 
अकेले लातूर के लिए 'वॉटर-एक्सप्रेस' से पेयजल भेजने में भारी खर्च आ रहा है। मराठवाड़ा बूंद-बूंद जल के लिए तरस रहा है। सूखाग्रस्त मराठवाड़ा के बांधों में सिर्फ 3 फीसदी पानी ही शेष है और उसके भी मॉनसून पूर्व सूख जाने की आशंका निर्मूल नहीं है। पिछले बरस इस समय तक 11 फीसदी पानी था।
 
इसे देखते हुए महाराष्ट्र सरकार ने 200 फुट से नीचे पानी के लिए बोरिंग तत्काल प्रभाव से प्रतिबंधित कर दिया है। महाराष्ट्र का लगातार तीसरे बरस पड़ने वाला सूखा क्या भारत की समग्र जल-नीति पर एक सवालिया निशान नहीं है? इस सुखाड़ की जिम्मेदारी कैसे तय की जाएगी? लातूर में 100 करोड़ की इस्पात फैक्टरी बंद हो गई है और न जाने कितने ही उद्योग-धंधे बंद हो जाने की कगार पर हैं।
 
भारत में जितने भी बड़े बांध हैं, उनमें 36 फीसदी हिस्सा महाराष्ट्र का है। इसके बावजूद यहां के फसल क्षेत्र को मात्र 15 फीसदी पानी ही उपलब्ध हो पाता है। देश में प्रमुख बांधों की कुल संख्या इस समय 91 है जिनमें तकरीबन 77 फीसदी तक पानी कम हो गया है। इन प्रमुख बांधों की कुल जल संग्रहण क्षमता 15,759 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) है, जो घटकर इस समय सिर्फ 3,583 बीसीएम पर आ गई है। यह स्थिति 21 अप्रैल 2016 तक की है।
 
उत्तरी क्षेत्र के राज्य, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और पंजाब के 6 प्रमुख जलाशयों में सिर्फ 415 बीसीएम, पूर्वी क्षेत्र के राज्य, झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के 15 प्रमुख जलाशयों में 640 बीसीएम, पश्चिमी क्षेत्र के राज्य, गुजरात और महाराष्ट्र के 27 प्रमुख जलाशयों में 479 बीसीएम, मध्यक्षेत्र के राज्य, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के 12 प्रमुख जलाशयों में 1295 बीसीएम तथा दक्षिण क्षेत्र के राज्य, आंध्रप्रदेश, केरल, तेलंगाना, कर्नाटक और तमिलनाडु के 31 प्रमुख जलाशयों में मात्र 755 बीसीएम पानी ही शेष है।

मॉनसून जून में आएगा, तब तक पानी की कमी और किल्लत और बढ़ेगी। 'वॉटर रिसोर्स एंड रिवर डेवलपमेंट' के मुताबिक 15 बरस पहले प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष 1500 क्यूबिक मीटर पानी मिलता था, जो घटकर अब 1100 क्यूबिक मीटर रह गया है। चीन ने 1500 के आंकड़े पर 'जल-संकट' घोषित कर दिया था, जबकि भारत ने 1100 के आंकड़े पर आ जाने के बाद भी ऐसा कोई ऐलान नहीं किया है। आखिर हमें अभी और कितने सुखाड़ देखना होंगे? ओड़िशा में तापमान 48 डिग्री पार जा चुका है।
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वर्ष 1951 से वर्ष 2013 के बीच गर्म दिनों सहित दिन-रात के तापमान में निरंतर किंतु उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। एक तरफ तापमान में बढ़ोतरी हो रही है तो वहीं दूसरी तरफ वर्ष 1960 से ही मॉनसून में गिरावट भी आती जा रही है। 'उद्योग एवं वाणिज्य संगठन एसोचैम' तथा मौसम-पूर्वानुमान बताने वाली कंपनी 'स्काईमेट वेदर सर्विसेज' का कहना है कि तापमान में लगातार बढ़ोतरी से वाष्पीकरण अधिक हो रहा है। 
 
पिछले कई वर्षों से मौसम का व्यवहार ऐसा ही दिखाई दे रहा है। अल-नीनो मुख्यतः प्रशांत क्षेत्र में प्रभावी हो रहा है। विस्मय का विषय यह है कि वर्ष 1990 से 2000 के दौरान औसतन 1 दशक में जहां सिर्फ 1 बरस ही सूखा पड़ता था, वहीं वर्ष 2000 से 2015 के दौरान अब तक 5 बरस सूखा बना रहा। इसकी सबसे बड़ी वजह अल-नीनो और ग्लोबल वॉर्मिंग ही है। तापमान बढ़ोतरी के लिए भी ये ही जिम्मेदार परिस्थितियां हैं।
 
सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को फटकारते हुए पूछा है कि सूखे के लिए राज्य पर तमाम जिम्मेदारियां डालकर केंद्र अपने दायित्व से पीछे कैसे हट सकता है? केंद्र सरकार को चाहिए कि वह सूखे पर राज्यों के लिए समझाइश जारी करती रहे। उसे राज्यों को बताना चाहिए कि उस राज्य के किस हिस्से में सूखे की संभावना है? केंद्र सरकार पहली समझाइश अगस्त माह से ही देना शुरू करे। बाद उसके नवंबर, दिसंबर, जनवरी और फरवरी में जारी करे। सूखे से निपटने के लिए राज्यों को केंद्र द्वारा फंड भी उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। इसके बाद भी अगर राज्य उस क्षेत्र को सूखा प्रभावित घोषित नहीं करता है तो फिर यह दूसरा मसला होगा। क्या इस चेतावनी को राज्य-सत्ता के विरुद्ध दी गई एक बेहद जरूरी न्यायिक चेतावनी नहीं समझा जाना चाहिए?
 
गंभीर सूखे की मार से झुलस रहे उत्तरप्रदेश में बुंदेलखंड क्षेत्र के ज्यादातर तालाब सूख चुके हैं। तापमान दिनो-दिन चढ़ता जा रहा है जिसकी वजह से लोगों को पीने का पानी और पशुओं के लिए पेयजल सहित चारे आदि की समस्या भी बढ़ती जा रही है। बांदा में 2,000 तालाब हैं जिनमें से 1,700 सूख चुके हैं।
 
बुंदेलखंड क्षेत्र में 10,000 हैंडपंप स्थायी तौर पर बंद हो चुके हैं और तकरीबन 5,000 को मरम्मत का इंतजार है। इस क्षेत्र में सूखे की समस्या इतनी विकट है कि पानी की कमी के कारण लोगों की शादियों में बाधा आ रही है। टैंकरों से आ रहे पानी के वितरण पर मारपीट हो रही है। कई जगहों पर पानी की लूटमार हो जाने से पानी वितरण का काम पुलिस करवा रही है। 
 
बुंदेलखंड में जिंदगी मायूस होकर ठहर-सी गई है। एक तो प्राकृतिक प्रकोप, ऊपर से गंदी राजनीति ने इस इलाके की खुशी लगभग छीन ली है, लेकिन अब लगता है कि सरकारें कुछ सक्रियता दिखाने की कोशिश में आ गई हैं। केंद्र सरकार ने राज्य सरकार से मिलकर कुल 1,304 करोड़ के सूखा राहत को स्वीकृति दी है, साथ ही बुंदेलखंड की लंबित पड़ी पेयजल आपूर्ति योजना के लिए 264 करोड़ रुपए भी जारी कर दिए हैं।
 
बुंदेलखंड में सूखे की समस्या कोई हाल-फिलहाल के दिनों की समस्या नहीं है। उत्तरप्रदेश विधानसभा के चुनाव को महज सालभर भी शेष नहीं बचा है, लेकिन लंबी राजनीति की लंबी बिछात बिछना शुरू हो चुकी है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि बुंदेलखंड में सूखा राहत के नाम का यह काम भी थोड़ी उछलकूद ही दिखाई दे? प्रायः देखा जाता रहा है कि इस तरह की छोटी-मोटी कवायदें तो हर कोई सरकार करती है और फिर समूचे दृश्य पर शून्य पसर जाता है। 
 
राहत राशि का वितरण और खर्च न तो कायदे की जगह और न ही कायदे से ही खर्च हो पाता है। यहां तक कि विफलता की जिम्मेदारी हमेशा की तरह रहस्यमयी ही बनी रहती है। सरकार की ओर से दिखाई जा रही सक्रियता बेमतलब इसलिए लगती है, क्योंकि बुंदेलखंड ही नहीं बल्कि तेलंगाना, विदर्भ, लातूर, मराठवाड़ा, मप्र, झारखंड, बिहार, ओडिशा आदि के कई इलाकों में सूखा, पेयजल की कमी और किल्लत से परेशान होकर लोग पलायन करने पर विवश हो गए हैं। 
 
आश्चर्य के साथ असफलता का अंदेशा कुछ इसलिए भी होता है, क्योंकि हमारी सरकारें और हमारी सरकारी मशीनरी अपनी ही बनाई गई योजनाओं, नीतियों और राहत कार्रवाइयों को संदिग्ध बना देती हैं। चुनावी वक्त में किए जा रहे तमाम प्रयास क्या सरकार की संजीदा सोच को सतही और संदिग्ध साबित नहीं करते हैं? 
 
अगर सूखे का संकट विकराल और सरकार की सोच गोलमोल है, तो दरियादिली दिखाने के लिए नागरिकों को क्या करना चाहिए? विचारों के उजाड़ और सुखाड़ से लोकतंत्र में शून्यता का ही विस्तार होता है। अगर पीने के पानी के लिए भी अपनी ही सरकारों से लड़-भिड़ नहीं सकते हैं, तो फिर सम्मान से जीने के इरादों का ख्याल भी छोड़ दीजिए।
 
राजस्थान के 33 में से 19 जिले जल संकट का सामना कर रहे हैं। भीलवाड़ा शहर में जल आपूर्ति ट्रेन से की जा रही है। बिहार भी पानी की किल्लत से परेशान है। जल आपूर्ति की पाइप लाइन में लीकेज से पानी की बर्बादी हो रही है। जल संचय की योजनाएं कागजों में ही बंद पड़ी हैं।
 
भोजपुर जिले में पिछले कुछ समय में 1,200 कुएं ढंक दिए गए हैं। 150-200 तालाबों को समतल कर दिया गया है। गया में छोटे-बड़े 40 तालाब थे। लगभग सभी तालाब अतिक्रमण की चपेट में हैं। गिनती के सिर्फ 5 तालाब बचे हैं। 
 
बिहार के ही 10 जिलों में भू-जलस्तर 2 फीट नीचे चला गया है। साफ पानी की मांग और आपूर्ति में 40 फीसदी तक का अंतर आ गया है। पानी के दलाल 1 लाख लीटर पानी का प्रतिदिन दोहन कर रहे हैं। मुजफ्फरपुर के 40 फीसदी लोगों के पास पीने का साफ पानी उपलब्ध नहीं है। गया जिले के दूरस्थ गांवों की महिलाएं सूख चुकीं नदियों में गड्ढे खोदकर पानी पाने की जी-तोड़ कोशिश कर रही हैं।
 
झारखंड के रांची इलाके में भी घनघोर जल संकट खड़ा है। रांची के कई क्षेत्रों में हजार फीट नीचे चले जाने के बाद भी भू-जल नहीं मिल पा रहा है। यहां कई क्षेत्र ऐसे हैं, जहां किभू-जल निकालना असंभव हो चुका है। पिछले 15 बरस में राज्य के अधिकतर जिलों में भू-जल 14 से 40 मीटर तक नीचे चला गया है। 800 से 1000 फीट पर भी पानी नहीं है। इसके लिए जल संग्रहण की खराब व्यवस्था जिम्मेदार है। 
 
उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में सहायक नदियां भी दुर्दशा की शिकार हैं और संकट में हैं। रुहेलखंड में गंगा की सहायक नदी रामगंगा इस हद तक प्रदूषित हो गई है कि उसका पानी फसलों को नुकसान पहुंचा रहा है। गोमती नदी अब बदबू और गंदगी के लिए जानी जाती है। गोमती नदी में मिलने वाली 22 सहायक नदियों में से ज्यादातर सूख चुकी हैं अथवा जहरीली हो चुकी हैं। 
 
वर्ष 1985 में गंगा की स्वच्छता के लिए एक्शन प्लान बना था, वह अब भी एक्शन में है। हंसिए मत, यह गंगा शुद्धिकरण की एक सरकारी हकीकत है। अब गंगा संरक्षण मंत्री उमा भारती ने संसद में बताया है कि गंगा को जुलाई 2018 तक निर्मल बना दिया जाएगा। इसके लिए उन्हें 20,000 करोड़ रुपए मिल गए हैं और हां, जन-जागरूकता फैलाने के लिए 350 करोड़ रुपए अलग से मिले हैं।
 
भारत के सूखे ने दुनियाभर का ध्यान केंद्रित किया है। दुनिया के तमाम देशों का ध्यान उन नीतियों की तरफ भी गया है, 'जो जल है तो कल है' से संदर्भ रखती हैं। दीर्घावधि की जल-नीति पर कारगर काम करने की जरूरत है। एक-दूसरे को जिम्मेदार बताकर खुद का बच निकलना संकट का समाधान नहीं है। 
 
जल संग्रहण और जल वितरण में तर्क-संगतता से काम लेना होगा। वर्षा जल को व्यर्थ ही बह जाने देने से रोकना होगा। पृथ्वी पर सुखाड़ की इस जिम्मेदारी के दोषी हम सभी हैं, नहीं कोई और? 

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