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श्रीकृष्ण सरल... जो स्वयं ही देशप्रेम का परिचय हैं

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पं. हेमन्त रिछारिया

पुण्यतिथि विशेष- 2 सितम्बर 2022

‘नहीं महाकवि और न कवि ही लोगों द्वारा कहलाऊं’
'सरल' शहीदों का चारण था कहकर याद किया जाऊ’


यह अभिलाषा थी राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ की। क्या... कौन श्रीकृष्ण सरल? यह हमारी विडम्बना ही है कि जिस व्यक्ति ने सारा जीवन सिर्फ़ और सिर्फ़ क्रान्तिकारियों के योगदान को हम तक पहुंचाने के लिए लगा दिया। जिसने अपने परिवार की खुशियां, पत्नी के गहने यहां तक कि स्वयं की जान भी दांव पर लगा दी, उसका आज हम परिचय पूछते हैं। हालांकि वो किसी परिचय का मोहताज नहीं, वह तो स्वयं परिचय है राष्ट्रनिष्ठा का, देशप्रेम का, श्रद्धा और समर्पण का।

सरल जी का कहना था कि मैं क्रान्तिकारियों पर इसलिए लिखता हूं जिससे आने वाली पीढ़ियों को कृतघ्न ना कहा जाए।‍ ‘जीवित-शहीद’ की उपाधि से अलंकृत श्रीकृष्ण ‘सरल’ सिर्फ नाम के ही सरल नहीं थे, सरलता उनका स्वभाव थी।

राष्ट्रकवि श्रीकृष्ण ‘सरल’ का जन्म 1 जनवरी 1919 को मप्र के गुना जिले के अशोकनगर में हुआ था। उनके पिता का नाम पं. भगवती प्रसाद बिरथरे और माता का नाम यमुना देवी था। जब सरलजी पांच वर्ष के थे तभी उनकी माता का देहान्त हो गया था। आपने लगभग दस वर्ष की उम्र में काव्य-लेखन प्रारम्भ कर दिया था। प्रारम्भ से ही आपकी रूचि राष्ट्रीय लेखन एवं क्रान्तिकारियों के जीवन में रही। आपने निजी व्यय से करीब बीस लाख किलोमीटर की यात्रा क्रान्तिकारियों के जीवन को खंगालने के उद्देश्य से की।

15 महाकाव्यों का लेखन करने वाले इस महान कवि ने अपने निजी व्यय से 125 पुस्तकें,45 काव्य-ग्रन्थ,4 खण्ड काव्य,31 काव्य संकलन,8 उपन्यास का प्रकाशन किया। शासन की ओर से उन्हें ना तो कोई सहयोग मिला और न ही शासन ने उनके लिखे साहित्य के विक्रय में कोई रूचि दिखाई। सौतेले व्यवहार में समाज के चौथे स्तम्भ कहे जाने वाले पत्रकारिता जगत ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी। शायद श्रीकृष्ण सरल तथाकथित समालोचकों एवं पत्रकारों की दृष्टि में महान साहित्यकारों की श्रेणी में नहीं आते। ठीक भी है, ऐसे कार्य महान व्यक्ति नहीं अपितु दीवाने ही कर पाते हैं। देशभक्ति और भारतमाता के सपूतों के प्रति श्रद्धावनत् ‘सरल’ जी से बड़ा दीवाना और कहां?

निश्चय ही सरल जी की काव्य यात्रा एक दीवानापन था, वैसा ही दीवानापन जैसा कबीर में था, मीरा में था और उसे समझने और महसूस करने के लिए बुद्धि से अधिक ह्रदय की आवश्यकता होती है। आज ह्रदय पाषाण होते जा रहे हैं। अगर इसी तरह चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब देशप्रेम, बलिदान, राष्ट्रनिष्ठा ये बातें सिर्फ पागलपन का पर्याय बनकर रह जाएंगी और इनके लिए कोई अपने प्राण दांव पर नहीं लगाएगा। सरल जी की यही चिन्ता उनकी काव्य-यात्रा में सर्वत्र परिलक्षित होती है। वे कहते हैं-

पूजे ना गए शहीद तो फिर आजादी कौन बचाएगा?
फिर कौन मौत की छाया में जीवन के रास रचाएगा?

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