घुँघरू बजावे गणपति
नहीं सुनाई देती मंगलगान की स्वर लहरियाँ
परिणय संस्कार, सोलह सार्थक संस्कारों में से सबसे सुंदर संस्कार। इस सलोने संस्कार का नाम कानों में पड़ते ही आँखों के समक्ष थिरक उठता है- खुशी और उल्लास में डूबा घर-आँगन।
परिवेश में जहाँ विभिन्न प्रकार की मिली-जुली सुगंध घुली है, कहीं किसी कोने में बूँदी के लड्डुओं की महक उठ रही है तो कहीं मीठी खुशबू मेहँदी की, कहीं अजवाइन डली पूरियाँ कढ़ाव में छम-छम नाच रही हैं, तो कहीं पूजाघर में मंगलमूर्ति के सामने पवित्र अक्षत हल्दी में रच-पच कर तैयार हो रहे हैं, मंत्रोच्चार के साथ नवयुगल पर बरसने-बिरखने के लिए। एक-एक अक्षत में सहस्र मंगल वचनों और शुभकामनाओं के हल्दी-कण लिपट रहे हैं।
खुशियों से आपूरित घर-आँगन की स्मृति भी अलग-अलग रूपों में उभरती है यानी बेटे के ब्याह की बात हो तो आनंद से उमगते, आहलाद से छलक-छलक जाते प्रसन्न परिजन नजर आते हैं, वहीं बेटी के विवाह में समस्त उमंग और पुलक के नीचे दिखाई देती है कसकर दबी वह फूल-सी कोमल चिंता, एक अव्यक्त वेदना- 'कलेजे के टुकड़े को हमेशा के लिए किसी को सौंप देना है।'
पता नहीं कैसे लोग होंगे, कैसे बाराती आएँगे, सब कुछ ठीक से तो निपटेगा न? इसी विवाह के लिए पिता पुरजोर प्रयासरत थे। न जाने कितने पत्रों को सपनों की कलम और आकांक्षा की स्याही से रचा गया। कभी कुंडली नहीं मिली, कभी मन नहीं मिले, कभी उम्र छोटी-बड़ी रही तो कभी खुद बिटिया या बिटिया के पिता ही...। कभी तत्परता से आरंभ हुए पत्र-व्यवहार में अचानक पत्रों का आना ही थम गया।
बहुत से जवाबों के बीच जवाब का न आना भी तो एक जवाब होता है। बिटिया के पिता आरंभ में बौखलाते हैं, फिर धीरे-धीरे अभ्यस्त हो जाते हैं इन 'रिक्त जवाबों' के। बहरहाल, अंतत: सौभाग्य की सुनहरी किनारियों से सजा लाल मंडप कस ही जाता है और तैयारियाँ हो जाती हैं। तैयारियाँ, जिनमें तप होता है, तरंग होती है, तनाव होता है और तमन्नाएँ होती हैं।
मनुहार पतियाँ सजने लगती हैं। दूरस्थ अंचलों में ब्याही खानदान की कोई बहन-बेटी छूट न जाए। उसकी आस का भावुक पंछी बेकल छटपटाकर न रह जाए। अनुज/अनुजा के विवाह की उम्मीद और बुलावे के इंतजार में बरसों से जमा हो रहे उसके साड़ियाँ और गहने संदूक में ही न रह जाएँ। तब ही तो मनुहार पाती में बड़ी सतर्कता से शब्द सँजोए जाते हैं कि बहन-बेटी के ससुराल वालों के आव-आदर में निवेदित भावों में कोई कमी न रह जाए।
कहाँ होती है अब ऐसी गहन आत्मीय चिंता? महीनों पहले से समूचा खानदान एकत्र होता और अपनी-अपनी जिम्मेदारियाँ बाँट लेता। मोहल्ले का अपरिचित पड़ोसी भी कुंकू पत्रिका और पाँच दिवसीय भोजन के न्योते से वंचित न रह जाए। धर्म और जाति के संकीर्ण भाव से परे, घर के बड़ों का यह कोमल शिष्टाचार कितना भला लगता था? जिस घर से अनबन चल रही है, वहाँ थोड़े दिन पूर्व जाकर अक्षत रखना है यानी वहाँ अतिरिक्त सम्मान की जरूरत होती है।आज की आधुनिक शादी में कहाँ दिखाई देती है खुशियों की वह सचाई और भोलापन। आजकल तो कोशिश की जाती है उन्हीं रिश्तेदारों- |
| इन 'मैरेज पार्टीज' में ढेर सारे अंकुरित अनाज तो सजे होते हैं पर आगत् के प्रति मन में आत्मीयता का नन्हा अंकुर प्रस्फुटित होता दिखाई नहीं पड़ता। किस्म-किस्म के पराठे तो गर्म होते हैं, पर रिश्तों की गर्माहट न जाने कहाँ जाकर ठंडी हो चुकी होती है... |
|
|
परिचितों को आमंत्रित करने की जिनके 'आगमन मात्र' से समाज के बीच शान (?) बढ़ सके। मोहल्ले में जहाँ पड़ोसियों को भी जल्दबाजी में अपरिचित की ही भाँति कार्ड थमाया जाता है, वहाँ अपरिचित पड़ोसी से तो निगाहें मिलाने के 'अपराध' से भी बचा जाता है। मात्र औपचारिक निमंत्रण पर सचमुच आ जाने की संकुचित आशंका!
और जिससे मनमुटाव है उसकी दहलीज के समक्ष तो 'वैभव' का विशेष प्रदर्शन होता है। आतिशबाजी का चमकीला किंतु दर्प और दंभ का काला-कड़वा उजास (?) सबसे ज्यादा उसी घर के सामने फैलाया जाता है।
विवाह के लिए अनिवार्य पारंपरिक वस्तुएँ शामियाना, दरी, टाटपट्टी, गद्दे, कनात, कढ़ाव-तपेले तो अब 'गँवई' हो चले हैं। बूँदी के लड्डू, बेसन की बर्फी, छोटी पकौड़ियाँ, रसीले पान तो जैसे अब अतीतकालीन चीजें हैं क्योंकि आजकल शादियाँ घर में होती कहाँ हैं? होटल, मैरेज हॉल, शानदार पार्क में 'पार्टीज' अरेंज की जाती हैं।
इन 'मैरेज पार्टीज' में ढेर सारे अंकुरित अनाज तो सजे होते हैं पर आगत् के प्रति मन में आत्मीयता का नन्हा अंकुर प्रस्फुटित होता दिखाई नहीं पड़ता। किस्म-किस्म के पराठे तो गर्म होते हैं, पर रिश्तों की गर्माहट न जाने कहाँ जाकर ठंडी हो चुकी होती है।
आइस्क्रीम की ठंडक स्टॉल्स पर तो सजी होती है, पर मिलन की ठंडक जलन में रूपांतरित हो हाव-भाव से अभिव्यक्त होती है। नपी-तुली तयशुदा मुस्कान हृदय से निकलकर हृदय तक तो पहुँच ही नहीं पाती बल्कि लिपिस्टिक के शेड्स में उलझकर वहीं उसी 'स्पेस' में थमकर विलीन हो जाती है।
नकली हँसी, नकली ठहाके, नकली चेहरे, नकली खुशियाँ यहाँ तक कि व्यंजन भी असली होते हुए नकली ही लगते हैं क्योंकि स्वाद और तृप्ति का संतोष नहीं दे पाते। 'मंगल आयोजन' बस महँगे कार्ड का एक आकर्षक नाम भर होता है अन्यथा आधुनिक शादियों में मांगलिक रिवाजों-कार्यक्रमों को कितना महत्व दिया जाता है, सब जानते हैं।
कहाँ तो बिटिया को हल्दी चढ़ी नहीं कि वह विशेष लाड़-दुलार व सम्मान की अधिकारिणी हो जाती है लेकिन आज की आधुनिकाएँ ऐन शादी के वक्त तक बाजार और ब्यूटी पार्लर्स में दौड़ लगाती नजर आती हैं। कहाँ तो लग्न लिखाते ही गणपति के मंगलगान की सुमधुर स्वर लहरियाँ गुंजित हो जातीं, कहाँ मात्र दो दिन की होटल्स में आयोजित शादी, जिसमें नवयुगल के नजदीकी रिश्तेदार भी सीधे विवाह के समय ही पहुँचते हैं। कहाँ वह मीठी छेड़छाड़ वाले बन्ने-बन्नी के गीत और कहाँ 'मैं तुझको भगा लाया हूँ तेरे घर से तेरे बाप के डर से' जैसे स्तरहीन गाने? कहाँ महीनेभर तक चलने वाले मंगल-कार्यक्रम जिनमें हर एक के पीछे अनूठा जीवन दर्शन छुपा होता है और कहाँ फास्टफूड कल्चर की इंस्टैंट मैरेज जिसमें दूल्हा-दुल्हन, गवाह, पंडित और वकील होते हैं और मात्र हस्ताक्षर से विवाह संपन्न हो जाता है। कहाँ वर-वधू को खिलाए जाने वाले हफ्तेभर के सुंदर मनोरंजक खेल, जिनमें एक-दूजे के प्रति झिझक कम होती और परस्पर विश्वास बढ़ता है और कहाँ विवाह से पूर्व ही हनीमून की तिथियाँ तय और विवाहोपरांत वहाँ जाने की जल्दी।आजकल जब किशोर-किशोरियाँ घर से छुपकर-भागकर विवाह रचाते हैं तो अग्नि के समक्ष फिल्मी फेरे अवश्य लेते हैं। उनसे पूछने की इच्छा होती है कि जब घर की मर्यादा, परिवार की प्रतिष्ठा, अपनों के अरमान, परंपराओं के मधुर बंधन, सबकी धज्जियाँ उड़ा दीं तो फिर सात फेरों का ढोंग कर पवित्र अग्नि का मखौल क्यों और किसलिए?पारंपरिक विवाह में मंगलाष्टक के मंत्रों को उच्चतम स्वरों में गाया जाता है जिसमें सकारात्मक तरंगें सक्रिय होती हैं, उसके साथ नवविवाहितों के सिर पर पीले चावल बरसाए जाते हैं उन अक्षत में समाए आशीर्वाद और मंगलकामनाएँ जीवन भर एक-दूजे के प्रति समर्पित रहने की ऊर्जा व प्रतिबद्धता देते हैं। उनमें निहित पुण्य सलिला मोक्षदायिनी नदियों के नाम नवजीवन के लिए कल्याणकारी होते हैं।आजकल या तो नितांत शुष्क से प्रेम विवाह होते हैं या फिर वैभव और धन का प्रदर्शन करते अतिरंजित विवाह। वे भी होते तो शुष्क ही हैं क्योंकि उनमें आत्मीयता, अनुराग और अपनापन नहीं होता। परंपरा और रीति-रिवाज की सौंधी महक से दूर ऐसी विवाह पार्टी में चमकते कपड़े होते हैं, दमकते जेवरात होते हैं, मेकअप और फैशन्स की गरिमाहीन प्रतिस्पर्धा होती है। और भी न जाने क्या-क्या जाने कैसा-कैसा होता है यानी सब कुछ होता है बस वही नहीं होता सरल, सहज, भोला-भाला निष्कपट मानव, जिसकी खुशियों में हमारे पहुँचने से सचमुच अभिवृद्धि हो जाए, जैसा कि कुंकू-पत्रिका में छपा होता है।पारंपरिक विवाह में मिलने वाले आशीर्वाद की शक्ति ही होती है कि ऐसे अधिकांश विवाह सुख-दु:ख में साथ निभाते हुए दूर तक चलने की सामर्थ्य रखते हैं जबकि अन्य प्रकार के विवाह में कई मन दु:खी होते हैं और विदग्ध मन से निकले शाप का प्रभाव कौन नहीं जानता। प्रेम विवाह में जहाँ दोनों पक्ष के परिजन दु:खी होते हैं, वहीं चमक-दमक वाली आधुनिक शादियों में भावनाओं, कोमल अभिव्यक्तियों और आत्मीयजनों का महत्व नगण्य होता है और सारा ध्यान मात्र प्रदर्शन पर ही केंद्रित रहता है। बहरहाल, विवाह, शादी, दाम्पत्य, ब्याह, परिणय नाम हम चाहें जो पुकारें लेकिन अर्थ के स्तर पर यह पावन संस्कार हृदय में जो अनुभूति तरंगित करता है, वह सदियों से अनाभिव्यक्त ही रही है। इसकी सुंदरता, शुद्धता और सौम्यता कायम रह सकती है अगर हम संस्कार शब्द का अर्थ भी आत्मसात करें। संस्कार अर्थात संशोधन या उत्तम बनाने वाला कार्य। ये संस्कार मनुष्य एवं जाति दोनों के होते हैं। मनुष्य के संस्कार जहाँ उसके व्यक्तित्व निर्माण और सामाजिक स्तर निर्धारण में सहायक होते हैं वहीं जाति के संस्कार समूचे समाज के व्यक्तित्व के रूप में अभिव्यक्त हो संस्कृति कहलाते हैं। |
| आजकल या तो नितांत शुष्क से प्रेम विवाह होते हैं या फिर वैभव और धन का प्रदर्शन करते अतिरंजित विवाह। वे भी होते तो शुष्क ही हैं क्योंकि उनमें आत्मीयता, अनुराग और अपनापन नहीं होता। |
|
|
समाज सुस्थिर हुआ, सभ्यता समन्वित हुई और संस्कृति सुगठित रूप में प्रवाहमान हुई तब संस्कारों को समारोह का रूप देकर उनके विधिवत आयोजन का विधान रचकर परिवार को सामाजिकता से जोड़ दिया गया।
ये संस्कार मीठे हैं, भोले हैं, प्रसन्नता के वाहक हैं। हम क्यों इन्हें विकृत करने पर तुले हैं? क्यों हम बनावटी, कृत्रिम और संयमहीन होते जा रहे हैं? सहजतम अनुभूतियाँ, निश्छल खुशियाँ, हार्दिक अंतरंगता जैसी शीतल धाराएँ सूखकर विलुप्त हो रही हैं और हम आसमान छूने की कोशिश में जड़ों से कटते जा रहे हैं।
क्यों न हम परंपरा की क्यारी में वास्तविक खुशियों के पौधे रोपें। फिर जब हमारे आँगन में ढोलक की थाप पर गूँजेगा घुँघरू बजावे गणपति और नाचे सरस्वती... तो विश्वास कीजिए कि कानों में शहद घुलता प्रतीत होगा और बन्ने-बन्नी के साथ पूरा मोहल्ला 'हरियाला' हो थिरकने लगेगा।