विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के अप्रतिम कवि हैं। लेकिन उन्होंने गद्यकार के रूप में भी प्रतिष्ठा हासिल की है। नौकर की कमीज, खिलेगा तो देखेंगे तथा दीवार में एक खिड़की रहती थी उनके उपन्यासों ने कथा कहने के अपूर्व-अद्वितीय तरीके खोजे हैं। इस बार संगत में उनके उपन्यास खिलेगा तो देखेंगे से गद्यांश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
एक दिन सुबह एक दृश्य उभरा। यह दृश्य गाँव से दूर था। वहाँ दो पहाड़ी थीं। ये दोनों अटल अलग-अलग थीं। शाश्वत अलग-अलग। बरसात के दिन थे। पेड़ बहुत हरे थे। चौड़े चौड़े पत्तों की छोटी छोटी आड़ थी। कहीं महुआ, नीम, आम, पलाश, सागौन के हरे-भरे पेड़ थे।
आगे साल का जंगल था। पहाड़ी मिलकर एक होती तो भी अकेलापन एक समय से इतना था कि अभी तक काटने पर उतना ही रहता। प्रारंभ को अकेलापन था कि कुछ नहीं। पृथ्वी में जो कुछ जीव, जगत, पत्थर, नदी, पहाड़, समुद्र, जंगल, वनस्पति मनुष्य इत्यादि हैं, वे सब पृथ्वी के सोच की तरह हैं। मन की बात की तरह। मनुष्य की सोच में पता नहीं कैसे ब्रह्मांड आ गया था।