Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

प्रकृति कविता है, मनुष्य गद्य या कथा

नरेश मेहता के गद्य पर बनी कलाकृति

हमें फॉलो करें प्रकृति कविता है, मनुष्य गद्य या कथा

रवींद्र व्यास

Ravindra VyasWD
जब एक बड़ा कवि गद्य लिखता है तो वह गद्य उसकी काव्यात्मक संवेदना का स्पर्श पाकर कितना जीवंत हो उठता है, इसकी मिसाल है ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि-उपन्यासकार श्रीनरेश मेहता का यह गद्यांश। उनका यह गद्य किसी निर्मल नदी की तरह ही पारदर्शी और प्रवाहमान है। इसमें वे कविता और गद्य के भेद को कितनी मार्मिकता से अभिव्यक्त करते हैं। इस गद्य की खूबी यह है कि इसमें मुझे वे बिम्ब और प्रकृति की छटाएँ मिली जो इस गद्य पर पेंटिंग बनाने में खासी मददगार रही हैं। इस गद्य की काव्यात्मक संवेदना ने मुझे इसे संगत के लिए चुनने और इस पर पेंटिंग बनाने के लिए प्रेरित किया। तो प्रस्तुत है श्रीनरेश मेहता का गद्यांश और मेरी पेंटिंग।


प्रकृति न तो कृपण और न ही पक्षपात करती है। यदि वह नदी, पहाडया वनराशि बनकर खड़ी या उपस्थित है तो वह सबके लिए है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसे कितना ग्रहण करते हैं। वस्तुतः प्रकृति कविता है और मनुष्य गद्य या कथा।

प्रकृति को अपने होने के लिए किसी अन्य की उपस्थिति की अपेक्षा नहीं होती। वह वस्तुतः ही सम्पूर्ण है लेकिन मनुष्य नहीं। अपनी पूर्णता के लिए मनुष्य को अन्य की उपस्थिति ही नहीं, सहभागिता भी चाहिए होती है।

यह सहभागिता ही वह घटनात्मकता है जिसके बिना मनुष्य का अक्षांश-देशांतर इस देशकाल में परिभाषित नहीं किया जा सकता। अपने देशकाल के साथ यह संबंध-भाव ही सारी लिखित-अलिखित घटनात्मकता या कथात्मकता को जन्म देते हैं।

संबंध, वस्तुतः मनुष्य का भोग रूप है। व्यक्तियों और वस्तुओं के माध्यम से यह भोगरूप प्रतिफलित होता है। शायद इसीलिए प्रकृति में विशाल पर्वत, उत्कट नदियाँ, प्रशस्त रेगिस्तान आदि कोई पात्र या चरित्र नहीं हैं।

इन सबकी उपस्थिति काव्य-बिम्बों की भाँति होती है और उपरान्त मौन घटनाहीनता में तिरोहित हो जाती है। चाहे वह नदी का समुद्र में विलीन होना हो, कविता होना, कभी कथा नहीं।

  प्रकृति न तो कृपण और न ही पक्षपात करती है। यदि वह नदी, पहाड़ या वनराशि बनकर खड़ी या उपस्थित है तो वह सबके लिए है। यह आप पर निर्भर करता है कि आप उसे कितना ग्रहण करते हैं। वस्तुतः प्रकृति कविता है और मनुष्य गद्य या कथा।      
शताब्दियों से हवाएँ और अंधड़ सहारा के असीम बालू व्यक्तित्व को उलट-पुलट रहे हैं, सूर्य, धूप की भट्टी में सबको रोज तपा रहा होता है परन्तु रेगिस्तान है कि अपने पर कविता का यह झुलसा वस्त्र नहीं उतारता।

लेकिन इसके ठीक विपरीत मनुष्य है, वह अपने घर की दीवारों पर ही नहीं बल्कि देशकाल की दीवारों पर भी कीलें गाड़ कर वस्त्र, चित्र या और कुछ टाँगकर निश्चिन्त होना चाहता है। और यहीं से मनुष्य और प्रकृति में अंतर या दूरी आरंभ हो जाती है। सूर्यास्त चित्र बनकर अपनी सारी गतिशीलता खोकर जड़ हो जाता है। चित्रवाला सूर्यास्त जड़ है लेकिन आकाश वाला नहीं।


इसी प्रकार संबंधों को जब हम भोग बना लेते हैं तब वे जड़ हो जाते हैं। तब वे या तो सुख या दुःख देने लगते हैं। चूँकि सुख क्षणिक होता है, इंद्रियगत होता है इसलिए इंद्रिय-तृप्ति के बाद वही दुःख में परिणत हो जाता है। शायद हमारे चारों ओर इस ताने-बाने को कथा या उपन्यास कहते हैं।

हम अनिकेतन (मेरे लेखन के पचास वर्ष) से साभार

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi