साठ के दशक के सर्वाधिक ख्यात नवगीतकार 'नईम' की तीन महीने की लंबी अस्वस्थता के बाद निधन हो गया। वे रोमान के विरुद्ध जीवन के यथार्थ के प्रतिबद्ध कवि थे, जिन्होंने बुंदेलखंड से आकर मालवा को न केवल अपनी कर्मभूमि, बल्कि रचनाभूमि बताया और अपनी कविता में मालवा के शब्दों को बहुत प्रीतिकर बनाया। उनके निधन से निश्चय ही हिन्दी कविता के एक युग पर पूर्णविराम लगा है।
वह भी मृत्यु का एकाएक किया गया लगभग अचूक-सा ही वार था, पर वे संभल गए थे- पक्षाघात ने उनके दाएँ गाल को अपना निशाना बनाया था और वे गाड़ी में मृत्यु से जूझते हुए सीधे अस्पताल के बजाए मेरे घर आ गए थे। मेरे प्रश्न के उत्तर में वे बोले थे- "मौत को पता था कमबख्त मास्टर है, बहुत बोलता है इसलिए गाल पर तमाचा मारा है, वह तो जीभ ही खींचना चाहती थी।" एक पीड़ाग्रस्त हँसी। ऐसे आसन्न क्षण में भी उनके भीतर का हास्यबोध उसी तरह का था, जबकि मृत्यु हँसियों को छीनना अपना पहला हक समझती है। मैं दहल गया था।
इसके बाद यह दूसरा वार था, उसका। इस बार उसने उनसे वह सब कुछ छीन लिया था, जिसको जोड़कर 'नईम' बनता था। वे लगभग तीन महीने से जीवन और मृत्यु के बीच धीमे-धीमे लगातार थरथराते क्षीण से पुल पर खड़े थे। हम उनके जीवन की ओर लौट आने की उम्मीद में थे, क्योंकि जब भी उनसे अस्पताल में मिलने गए, वहाँ डबडबाती भाषा से भरी गीली आँख में जैसे 'नईमाना' अंदाज में सवाल हो, 'ये कौन-सा संसार है?' ... शब्द नहीं, सिर्फ एक आद्य-भाषा थी, जिसके हर्फों को पढ़ने की कुव्वत किसी में नहीं थी- पर, घर के सभी लोग उनकी पीड़ा को ही पहचानते थे और रोज-रोज उसका अपनी इस दुनिया की भाषा में तर्जुमा कर रहे थे।
जबकि, मुझे तो जीवनभर जब भी पहली बार मिले- सवाल करते हुए ही दिखे। उनकी हर शुरुआत सवाल से होती थी और आज फिर वे अपने पीछे मेरे ही नहीं, सबके लिए सवाल छोड़ गए हैं। सिर्फ, हम अपनी तरफ से उसमें 'कबीरा' जोड़ सकते हैं। पिछले दिनों में उन्होंने ' कबीरा' में अपनी, जैसे एक बहुप्रतीक्षित अन्विति पाली थी। जैसे पश्चाताप भी व्यक्त हो तो वे कबीरा से कह रहे हों।
जब से पक्षाघात हुआ था, वे लकड़ी का सहारा लेकर घर-बाजार के बीच घूम भी आते थे। एक दफा मैंने कहा, ' लिए लुकाटी हाथ' आप कहाँ जा रहे हैं? बाजार में। हँसने लगे : कबीर के लिए ये मुमकिन रहा होगा कि लुकाटी हाथ में लेकर बाजार में खड़े हो जाएँ, अब तो बाजार में बटुए के साथ ही जाया जा सकता है। हमारे बटुए में भी रुपए कहाँ, जर्दे की पुड़िया भर मिलेगी। 'और लुकाटी तो अब लट्ठ में बदल गई है, और उन्हीं के बूते पर चुनाव जीत रहे हैं' एक बहुत क्षीण-सा संकेत। लुकाटी। लट्ठ। लकड़ी।
मुझे याद आ रहा है, आपातकाल में एक दिन बोले थे- 'लोग अंडरग्राउंड' हो रहे हैं, ...राजनीति के डर से। हमें तो मौत ही 'अंडरग्राउंड' करेगी। सचमुच ही वे आज 'अंडरग्राउंड' (दफनाए) हो गए। उस मिट्टी की पर्त के नीचे एक कभी न जागने वाली नींद के लिए तैयार कर दिया उन्होंने अपने जिस्म को।
तीन महीने लगे, उन्हें। बोलते होते तो कहते : ' मालवे की मेरी यही कमाई है।' वे बुंदेलखंड से आए थे, लेकिन मालवा की मिट्टी को ही उन्होंने अपना गोत्र बना लिया था, और इससे मालवा की भी पहचान बनी। ...उन दिनों वे 'धर्मयुग' के रंगीन पृष्ठों पर छपने वाले गीतकार की तरह ख्यात थे। एक ईर्ष्या पैदा करने वाला यश प्राप्त था उन्हें। मालवा देश में उनके भी संदर्भ से जाना जाता था।
मुझे याद है, उनकी आखिरी आवाज। मैंने भोपाल के लिए की जा रही यात्रा में यों ही चुहुल के लिए मोबाइल किया। कहा, ' साँस-साँस में दिक्कत-दिक्कत, घुला हवा में जहर कबीरा' । ठहाके के साथ उत्तर- 'तो मियाँ, भोपाल में हो' , लौटते समय उनकी आवाज थी। ' बहुत मलिन है, शक्ल सूरज की, ये कैसी है, ' सहर" (सुबह) कबीरा।' अरे तुमने मजाक-मजाक में मतला दे दिया। गजल पर काम कर रहा हूँ।
आज, ऐसा ही लग रहा है, जैसे सूरज बिना किसी तैयारी के आसमान में आ गया है। धूप धुँधली है। या सूरज ही कहीं आसमान में भटक गया है। धूप को प्यार करने वाले नईम की बिदाई की सोचकर ऐसा ही लग रहा है। कुछ लोगों के जीवन में उनकी उपस्थिति ऐसी ही थी। रौशनी से भरी। लेकिन, वे तो पिछले तीन महीने से अपने ही अँधेरे में धीरे-धीरे उस पुल को पार करते हुए जीवन की तरफ लौटने का उपक्रम कर रहे थे- उनके लिए अब यह दुनिया नहीं रही है। उनकी वापसी की कोशिश पर एक आखिरी पूर्ण-विराम...। शब्द, वाक्य, सभी पूर्ण-विराम पर चुप रहते हैं।
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मैंने पिछले दिनों शब्द नहीं, रंग में उनकी इस स्थिति को लेकर एक 'चार बाय छः फुट' की एक पेंटिंग तैयार की थी, जिसमें नजरुल इस्लाम और नीत्शे की तरह 'नईम" के लिए भी, ' टाइम फ्रैक्चर्ड' और ' टाइम-डिस ज्वाइंटेड' की स्थिति थी। उनके लिए मस्तिष्काघात के बाद वक्त टुकड़े-टुकड़े हो गया था। जब वे बड़ी-बड़ी पनीली और पीड़ाग्रस्त आँख से देखते तो मुझे लगता है, वे वक्त के उन टुकड़ों को ढूँढ रहे हैं,... और, अब हम उन्हें ढूँढेंगे- उनके अस्तित्व के टुकड़े-टुकड़े।
लोगों में, जगहों में, शब्दों में- और, हाँ मालवी की मिट्टी के उन कणों में भी, जो अप्रैल की धूप नहीं, किसी ज्वालामुखी के लावे से बने थे। एक ज्वालामुखी उनके भीतर था, जो सिर्फ कविता में ही धधकने की कोशिश करता था, लेकिन वह अंततः देह में फूट पड़ा। वे मालवा की मिट्टी के भीतर दफ्न रहते हुए, अपने कान उस तरफ जरूर खोल लेंगे, जहाँ कभी कुमार गंधर्व मालवा को गाते रहे। नईम देवास में 'घर' बनाते हुए खुद घराना बन गए। उनके इस घराने में सैकड़ों नाम हैं, जिनकी अवसादग्रस्त स्मृति में नईम अपनी हँसियों के साथ हमेशा किलकिलाते रहेंगे। उन्हें मेरा ही नहीं, उन सबकी ओर से भी नमन, जो उस नईम-घराने के हैं।