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एक विलक्षण व्यक्तित्व : आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी

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हमें फॉलो करें एक विलक्षण व्यक्तित्व : आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
- डॉ. श्रीप्रभा शर्म

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भारतीय वाङ्गमय के धर्म और दर्शन, भाषा और साहित्य, इतिहास और विज्ञान के विभिन्न कूलों में बहने वाली धाराओं में अवगाहन कर साहित्य में दुर्लभ माणिक्य एकत्र करने वाला कोई है तो वह, चिन्तना के बेजोड़ विद्वान, विद्यावारिधि, पद्मभूषण डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी।

जीवन और साहित्य दोनों स्तरों पर अनुकरणीय द्विवेदीजी भारतीय परंपरा में मनुष्य के संघर्ष और उसकी जिजीविषा को आगे बढ़ाने वाले प्रगतिशील मूल्यों के प्रतीक थे। वे प्राचीन और नवीन दोनों के मध्य एक सेतु थे। वे धर्म, संस्कृति और इतिहास के पुनराख्याता होते हुए भी स्वछंद एवं उदार विचारक थे।

द्विवेदीजी का जन्म संवत् 1864 सावन शुक्ला एकादशी तद्‍नुसार अगस्त, 1907 में उत्तरप्रदेश स्थित बलिया जिले के एक छोटे से गाँव ओझबलिया के आरतदुबे का छपरा में हुआ था, जो इनके प्रपितामह के नाम पर बसा हुआ है। अत्यंत सामान्य परिस्थितियों से अपने व्यक्तित्व का विकास कर, कठिन परिस्‍थितियों में शिक्षा प्राप्त कर उन्होंने विद्या वाचस्पति (डॉक्ट्रेट) की मानद उपाधि प्राप्त की। वैयक्तिक साधना के बल पर अध्ययन कर अपने ज्ञान को ज्ञान-जलधि बना लेना अद्‍भुत है।

वे संस्कृत, पालि, प्राकृत, भोजपुरी, अँग्रेजी, बंगला, हिन्दी और अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। गंभीर से गंभीर विषय को अपनी उन्मुक्त हँसी से सहज एवं रसमय बना देना उनका मौलिक गुण था। उनका व्यक्तित्व इतना सुदृढ़ था कि संसार के प्रलोभन एवं कठिनाइयाँ उनका मार्ग अवरुद्ध न कर सके। शांति निकेतन में गुरु रवींद्रनाथ टैगोर, क्षितिमोहन सेन एवं अन्य लब्धप्रतिष्ठित विद्वानों के सान्निध्य में उनकी चारित्रिक विशेषताएँ संतुलित रूप में उद्‍भाषित हुईं।

वे विनयशील और मैत्रीपूर्ण होते हुए भी स्पष्टवादी और निर्भीक थे। उनका आक्रोश निरा सूखा एवं बंजर न था वरन् सृजनात्मक था। उनका सहजता में पला सुसंस्कृत एवं अभिजात्य पाण्डित्य केवल विद्वजनों के लिए ही नहीं था अपितु सर्वजन सुखाय एवं सर्वजन हिताय था। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व में सहजता, सरलता एवं उदारता थी। वे इतने सरस और जिंदादिल थे कि पास बैठा हुआ व्यक्ति चाहे कितना ही गंभीर क्यों न हो उसका गांभीर्य रह ही नहीं पाता था। विद्यानिवास मिश्र के अनुसार कहें तो 'द्विवेदी के सान्निध्य में जो आता वह दो बातों में हार जाता है, एक तो ठहाकों में और दूसरे कथाओं और लेखों में।'

डॉ. द्विवेदी ज्योतिषाचार्य, साहित्याचार्य, धर्मशास्त्री, संपादक, प्राध्यापक, शोधकर्ता, इतिहासज्ञ, आलोचक चिरजिज्ञासु होते हुए भी निराभिमानी थे। उनके सूक्ष्म अध्ययन का विस्तार, उनके ज्ञान का असीम प्रसार, उनकी पकड़ का पैनापन, उनकी सहृदय संवेदना, उनकी अभिव्यक्ति की सरलता ने उन्हें विलक्षण साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित किया‍ फिर भी उन्हें आत्मप्रचार एवं आत्मप्रसार जैसे दुर्गुण छू भी न पाए थे।

आचार्यजी की अभिरुचि साहित्यिक क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी रही थी। वे पाक कला मर्मज्ञ थे तो साथ ही अच्छे संगीतज्ञ भी थे। उनकी पुत्री मालती तिवारी कहती हैं कि 'उनके सभी गानों का एक ही राग होता था। मतलब यह है कि बाबूजी रवींद्र संगीत से लेकर संस्कृत के श्लोक और हिन्दी के गीत एक ही राग में गा लेते थे।' उनको चित्रकारी से भी लगाव था तो बागवानी के भी वे शौकीन थे, तीमारदारी भी वे कर लेते थे। इस तरह उनका हर क्षेत्र में निर्बाध प्रवेश था।

ग्रीक विद्वान लोंजाइनस ने काव्यगत उदारता की मीमांसा करते हुए लिखा है 'साहित्यकार के आत्मतत्व की महानता का प्रतिबिंब ही साहित्य का औदात्य है। वाग्वैदग्ध्य उन्हीं में पाया जा सकता है जिनकी चेतना व्यापक और उदार हो।' ये शब्द पंडितजी के संबंध में पूर्णत: सत्य सिद्ध होते हैं। आचार्यजी उन विरल रचनाकारों में से थे जिनकी कृतियाँ उनके जीवनकाल में ही क्लासिक बन जाती है। उन्होंने जन्मजात प्रतिभा के साथ साहित्य का अनुशीलन एवं जीवन को संपूर्ण भाव से जीने की साधना करके पारदर्शी दृष्टि प्राप्त की थी।

शांति निकेतन में रहकर सन् 1930 के लगभग द्विवेदीजी साहित्य रचना का कार्य प्रारंभ कर आजीवन अखंड तपस्वी की भाँति साहित्य साधना में रत रहे थे। उन्होंने साहित्य के लगभग सभी क्षेत्रों को अपनी लेखनी से लाभान्वित किया। वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में उनके पूरक सिद्ध हुए। उन्होंने इतिहास को आलोचक की दृष्टि से नहीं जनसाहित्य के इतिहासकार की दृष्टि से देखा था। साहित्य के अनेक नवीन तथ्यों का अनुसंधान किया। ।

आचार्यजी ने 'सूर' एवं 'कबीर' को नई व्याख्या के साथ साहित्य में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने न सिर्फ 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' (भूमिका एवं हिन्दी साहित्य), 'प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद', 'साहित्य का मर्म', 'मध्यकालीन धर्मसाधना', 'मृत्युंजय रवींद्र', 'कालिदास की लालित्य योजना' जैसे आलोचनात्मक ग्रंथ लिखे बल्कि कुछ ग्रंथों जैसे रवींद्रनाथ के 'रक्तकर्वी' नाटक, 'पुरातन प्रबंध संग्रह' आदि का अनुवाद एवं 'पृथ्वीराज रासो', 'संदेश-रासक', 'प्रबंध चिंतामणि' का संपादन भी किया।

उनके द्वारा लिखित ललित निबंध एवं ऐतिहासिक सांस्कृतिक उपन्यास अपनी शैली के अनूठे हैं। 'अशोक के फूल', 'कुटज', 'साहित्य सहचर', 'विचार और वितर्क, 'विचार प्रवाह', 'कल्पलता', 'हमारी साहित्यिक समस्याएँ' जैसे निबंधों में उनकी विद्वता, पर्यावरण, प्रकृ‍ति प्रेम एवं लालित्य का आभास होता है तो 'बाणभट्‍ट की आत्मकथा', 'चारूचंद्र लेख', 'पुनर्नवा' एवं 'अनामदास का पोथा' नाम के उपन्यासों में संस्कृति निष्ठा, धर्म, दर्शन और अध्यात्म की गहरी समझ, मानवीय संवेदना में गहरी आस्था एवं नारी का सम्मान इत्यादि आधुनिक युग बोध के दर्शन होते हैं। उनका साहित्य तो ऐसा है 'जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पैठ' भाव के अनूठेपन, प्रखर ज्ञान, चेतना और उदार मानवीय दृष्टिकोण के साथ उनमें भाषा का अभिजात्य भी है तो लोकभाषा की सहजता भी।

उनके विचारों, मान्यताओं एवं साहित्य का केंद्र बिंदु मनुष्य है। वे 'न हि मानुषात, श्रेष्ठतर किंचित' को मानते हुए मनुष्य की अदम्य जिजीविषा में विश्वास रखते थे। उनके विचारानुसार ज्ञान की समस्त शाखाएँ मनुष्य का मंगल करने के लिए हैं। इतिहास और साहित्य उसी की जययात्रा के उद्‍घोषक हैं। यही आधुनिक भावबोध भी है।

पंडित द्विवेदीजी ऐसे कुशल वक्ता थे, जिनकी आशीर्वादमयी छत्रछाया अपने शिष्यों पर सदैव रही। उन्होंने शिष्यों की एक ऐसी श्रृंखला हिन्दी साहित्य को दी जो आज तेजस्वी लेखक हैं तथा उनकी साहित्य साधना को देश के कोने-कोने तक फैला रहे हैं।

आचार्यजी रहन-सहन, खानपान, पहनावे आदि सभी दृष्टिकोणों से पूर्णरूपेण भारतीय संस्कृति के प्रतीक थे। भारतीय संस्कृति उनके लिए विचार का विषय न होकर आत्मा का स्पंदन थी। वे जाति, धर्म, संप्रदाय के सीमित रूप को न मानकर मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाओं की सर्वोत्तम परिणति को संस्कृति मानते थे और अविच्छिन्न अखण्ड संस्कृति के पोषक थे। वे साहित्य को भी सांस्कृतिक दृष्टिकोण से ही देखते थे।

19 मई, 79 को आचार्य प्रवर की मृत्यु से हिन्दी साहित्यांगन का विशाल वटवृक्ष उखड़ गया। शेष रही सुरभि-सी उनकी स्मृति एवं हँसी की ‍अमिट गूँज। युग प्रवाह को अपने काबू में रखकर अग्रसर होने वाले थोड़े होते हैं, काल विशेष की छाप अपने पर न लगने देकर अपनी छाप उस पर लगा देने वाले ही युग निर्माता कहे जाते हैं। ऐसे ही अद्वितीय व्यक्तित्व के धनी आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी थे।

(साभार : सम्बोधन)

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