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प्रेमचंद : कलम के सिपाही

31 जुलाई : प्रेमचंद जयंती

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जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के कष्टमय अनुभवों ने कलम के सिपाही प्रेमचंद को इतना महान बनाया। उपेक्षा में उनका जीवन बीता और लेखन कार्य से बड़ी मुश्किल से परिवार का भरण-पोषण चला। बाल मनोविज्ञान से लेकर वयस्क तक समाज का हाले बयाँ करने वाले प्रेमचंद की रचनाओं में इतना वैविध्य है कि आज भी उसका कोई सानी नहीं।

प्रेमचंद ने आठ दशक पहले जो लिखा वह आज भी लोकप्रिय है। उन्होंने समाज के यथार्थ को छुआ और परखा। इसे अपने साहित्य में कुशलता से पिरोया। कथा, कहानी और उपन्यास में यथार्थवाद को सरलता तथा सरसता से प्रस्तुत किया, जिसका मुकाबला आज के साहित्यकारों के बस की बात नहीं।

महान साहित्यकार प्रेमचंद के पोते आलोक राय के अनुसार, ' समाज में वही पीड़ादायी परिस्थतियाँ आज भी हैं लेकिन आज के रचनाकार कुछ नयापन चाहते हैं। यथार्थ को कहने का तरीका व्यक्तिवादी अधिक हो गया है।हर कालखंड में प्रवृत्तियाँ हावी होती हैं। नए रचनाकारों में व्यक्तिवादी नजरिया लेखनी के जादुई आकर्षण कम होने का कारण हो सकता है।

प्रेमचंद की लोकप्रिय कहानी-‘दो बैलों की कथा’ में दो प्राणियों हीरा और मोती के माध्यम से उन्होंने आम जन की आजादी की अकुलाहट दिखाई है। दोनों बैल कांजीहाउस की दीवार को ढाह देते हैं वह कथा में आजादी की छटपटाहट का प्रतीक है।

बनारस के पास लमही गाँव में 31 जुलाई 1880 में जन्मे प्रेमचंद ने 300 से अधिक कहानियाँ और उपन्यास लिखें। मदरसे में शुरूआती शिक्षा-दीक्षा हासिल करने वाले प्रेमचंद पर पिता के देहांत के बाद अपने सौतेले भाइयों और माँ की देखरेख का जिम्मा आया।

आजादी के संघर्ष में कूदने के कारण उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी। आजीवन जीविका चलाने में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ा । बाल मनोविज्ञान को अभिव्यक्त करने में भी प्रेमचंद जैसा विलक्षण रचनाकार ‍मिलना मुश्किल है। अपनी कहानी ईदगाह के पात्र हामिद से उन्होंने बड़ी-बड़ी बातें कहलवा दी हैं। हामिद दादी के सान्निध्य में परिपक्व है और अन्य हमउम्र साथियों की तरह खेल खिलौनों और गुड्डे- गुड़ियों के प्रलोभन में नहीं पड़ता और दादी के लिए चिमटा खरीद लाता है।

अमर रचनाकार प्रेमचंद के पोते ने कहा कि 'यह हिंदी की दुविधा है। अंग्रेजी में सरल और सरस बाल साहित्य प्रचुर है लेकिन हिंदी समाज में दरिद्रता है। हिंदी समाज में बच्चों के पास ले देकर सस्ती-सी चीज टेलीविजन है। जिस अच्छे साहित्य से बच्चों की कल्पनाओं को सींचा जाना था वह विद्रूपता की शिकार हो रही है।

परिवेश और समाज की संवेदना को समझकर उसे रचनाकर्म में प्रकट किया। उपेक्षित और कष्टमय जीवन हमेशा हृदय के अनुभव का महामंत्र है जिससे रचना साकार होती है। आज के साहित्यकारों में संवेदना नहीं है। आम जीवन की संवेदना को प्रकट करने के लिए व्यापक अनुभूति की जरूरत होती है। गाँधीजी, टैगोर और तुलसीदास के बाद प्रेमचंद में यह बहुत कूट-कूट भरी थी।

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