बांग्ला साहित्यकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी नहीं रहीं। अब जबकि लेखन व्यवसाय हो चला है और किराए के लेखक भी मिलने लगे हैं उनका जाना एक युग का उनके साथ चला जाना है। 1996 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित महाश्वेता देवी अपने सच्चे और प्रभावी लेखन के लिए जानी जाती रही।
यह बात आश्चर्यजनक है लेकिन सच है कि लेखन कभी उन्होंने घर में रहकर एयरकंडीशंड रूम में नहीं किया बल्कि विषय की आवश्यकता के अनुसार गरीब और सुदूर बस्तियों में जाकर रही। उनके बीच महीनों रहती थीं तब जाकर उनके उपन्यास की भावभूमि तैयार होती थी। उनके संघर्ष को वे जीतीं थी तब कहीं उनकी कलम कुछ झरती थीं। उनकी सच्ची मेहनत व ईमानदारी ही उनके लेखन की पहचान बनी। उन्होंने स्वयं को दुनिया के समक्ष पत्रकार, लेखक, साहित्यकार और आंदोलनधर्मी के रूप में सशक्त रूप में प्रस्तुत किया।
महाश्वेता देवी का जन्म 14 जनवरी 1926 को अविभाजित भारत के ढाका में हुआ था। उनके पिता मनीष घटक कवि और उपन्यासकार थे। माता धारीत्री देवी भी एक लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं।
उनकी स्कूली शिक्षा ढाका में हुई। भारत विभाजन के समय परिवार पश्चिम बंगाल में आकर बस गया। बाद में विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से बी.ए.(Hons) अंग्रेजी में किया और फिर कोलकाता विश्वविद्यालय में एम.ए. अंग्रेजी में किया।
कोलकाता विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में मास्टर की डिग्री प्राप्त करने के बाद एक शिक्षक और पत्रकार के रूप में अपना जीवन शुरू किया। कलकत्ता विश्वविद्यालय में अंग्रेजी व्याख्याता के रूप में नौकरी भी की। 1984 में अपना सारा जीवन लेखन को समर्पित कर दिया और स्वैच्छा से सेवानिवृत्ति ले ली।
महाश्वेता जी ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाएं लिखकर महत्वपूर्ण योगदान दिया।
1956 में प्रकाशित ‘झांसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम रचना है। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूंगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता जी ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पूना, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झांसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा।
महाश्वेता देवी ने एक बार कहा था 'पहले मेरी मूल विधा कविता थी, अब कहानी और उपन्यास है।'
उनकी कुछ महत्वपूर्ण कृतियों में 'अग्निगर्भ' 'जंगल के दावेदार' और '1084 की मां', माहेश्वर, ग्राम बांग्ला हैं। उनकी कहानियों के बीस से अधिक संग्रह प्रकाशित किए जा चुके हैं।
उनके उपन्यासों में मानवीय संघर्ष का चित्रण इतना जीवंत मिलता है कि पढ़ते हुए पाठक नीरव खामोशी ओढ़ लेता है। घंटों स्तब्धता बनी रहती कि आखिर इतना सूक्ष्म आकलन लेखिका कैसे कर पाई होगी? जाहिर है, यह पैनापन उनकी इसी आदत के चलते लेखनी में आया कि जब तक देखो नहीं, स्वयं भोगो नहीं तब तक कलम से लिखना और काल्पनिक चमत्कार पैदा करना लेखन के प्रति गुनाह है। वे इस बात की घोर विरोधी रही कि कमरे में बैठकर कोरे आंसू बहाए जाए। उनकी नायिका प्रखर और मुखर मिलती है उनकी ही तरह। विचारों की स्पष्टता और भावों की सरलता एक साथ उनके लेखन में नजर आती रही।
उनके जाने के बाद अब शायद ही ऐसे लेखक बचे हैं जो महीनों जंगलों और बस्तियों में जाकर रहे। गरीबों की पीड़ा, उनका संघर्ष, उनकी जीवनशैली को आत्मसात करें और फिर उठाए अपनी कलम....उनके पाठक से ज्यादा व्यथित वे लोग हैं जिनके साथ जिनके बीच वे बरसों अपनी पहचान ना बताकर रहींं। जिनके संघर्षों की वे आवाज बनीं। उनके लेखन और व्यक्तित्व की सचाई को नमन....अपने उच्चकोटि के लेखन संस्कारों की वजह से उनका स्थान भारतीय पाठकों के दिल में सदा के लिए है और रहेगा। उनका विलक्षण लेखन हमारी धरोहर है।