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भारतीय आत्मा का स्पंदन

प्रेमचंद: जन्मदिवस पर विशेष

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राजकुमार कुम्भ
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कला, कला के लिए नहीं बल्कि जीवन के लिए होती है, इसी के साथ अति महत्वपूर्ण बात यह भी है कि सामाजिक कुप्रथाओं के निराकरण निमित्त समय- असमय किसी न किसी लेखक को ही आगे आना होता है,। क्योंकि सिर्फ एक लेखकही वह प्राणी होता है जिसका बेहतर समाज निर्माण के संकल्प में अपना खुद का कोई निजी स्वार्थ नहीं होता है। यहाँ एक और बात है कि जब आप जीतते हैं तो खामोश रहिए और अगर हार जाते हैं तो कम बोलिए। प्रश्न यहाँ पर एक बार फिर प्रेमचंद की प्रासंगिकता का है, किंतु प्रतिप्रश्न यह भी हो सकता है कि क्या प्रेमचंद कभी अप्रासंगिक भी हो सकते हैं?

सवा सौ साल के अंतराल के बाद भी हम पाते हैं कि प्रेमचंद दरअसल प्रतिकूलताओं की अनुकूलताओं के सहज अकेले लेखक थे जितना सहा, उतना कहा। सहते-सहते कहते जाने वाले लेखकों में शुमार थे प्रेमचंद। समय के साथ चलते-चलते समय की नब्ज पकड़ते हुए समय से आगे देखने का माद्दा ही लेखकीय माद्दा कहा जाता है।

प्रेमचंद के लेखन में इस लेखकीय माद्दे की अद्वितीयता देखी जा सकती है। उनका जीवन व्यवहार उनके लेखकीय-व्यवहार से जरा भी भिन्न नहीं था। परिस्थितियों के विपरीत प्रकाश या अंधकार ने उन्हें जो दृष्टि दी थी, उसने भारतीय साहित्य के कोने-कोने को उजास से भर दिया।

अगरचे जो न होते प्रेमचंद तो हम क्या कहते दुनिया से? अपने किस पुरखे का नाम बताते? क्या होती अंतत: हमारी वल्दियत? प्रेमचंद को मात्र हिंदी का प्रतीक नहीं समझा जाना चाहिए। वे समूचे भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करते थे, करते हैं और करते रहेंगे।

प्रश्न प्रासंगिक ही नहीं, बल्कि अमर है कि लेखन क्यों? किसके लिए? किस उद्देश्य से? शोषण मूलक समाज की वे जटिलताएँ क्या हैं? क्यों है?
इनके खिलाफ जब कोई बोलता नहीं है तो एक लेखक को सामने आना पड़ता है। अगर धर्माचार्य और राजा इत्यादि समरसता के सिद्दांत पर काम कर जाते तो प्रेमचंद की क्या जरूरत रह जाती? वे सिर्फ राजनीतिक आजादी नहीं चाहते थे, उनके लेखन में सामाजिक आजादी सहित धार्मिक आजादी के भी तत्व उपलब्ध हैं।
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समय बदल जाता है, लेकिन सवाल नहीं बदलते हैं। देश वही, समाज वही, योजनाएँ वही लेकिन संसार की सबसे बड़ी नेमत सिर्फ स्वराज हो सकती है। प्रेमचंद उस जमाने में, उस जमाने का विपक्ष थे। किसी भी किस्म की गुलामी का विरोध ही एकमात्र मकसद था प्रेमचंद का।

उन्होंने यूरोपीय ढांचे के गल्प को कभी स्वीकार नहीं किया। भले ही उसका उपयोग किया हो। उक्त ढांचे में एक भारतीय आत्मा का स्पंदन कायम रख पाना सिर्फ प्रेमचंद के बूते की ही बात थी।

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बिकना तो सब चाहते हैं लेकिन अपनी कीमत पर, किंतु प्रेमचंद की कोई कीमत नहीं थी और न ही हो सकती थी। प्रेमचंद की अपनी संस्कृति थी और अपनी सांस्कृतिकता। उनकी सामाजिक स्थानीयता तो वाकई कमाल की थी, वे उस समरस समाज को देखना चाहते थे जिसमें पानी और रक्त का रंग एक होता है।

सांप्रदायिकता के घिनौनेपन की खिलाफत में प्रेमचंद ने जो कुछ भी लिखा है वह आज भी और कल भी प्रासंगिक रहेगा। प्रेमचंद ने वर्गभेद, वर्णभेद और जातिभेद पर ही प्रहार नहीं किया। उन्होंने उस राजनीतिक व्यवस्था पर भी कड़ा प्रहार किया जो उच्च शिक्षा प्राप्त शहरी लोगों का आश्रय स्थल बन जाती है। किंतु इस एक बात पर जरा गौर किया जा सकता है‍‍‍ कि सन् 1917 से पहले के प्रेमचंद में राष्ट्रीय सवालों से जूझने की मानसिकता क्यों दिखाई नहीं देती है। शायद गाँधी नामक आंदोलन तब तक उपस्थित नहीं हुआ था।

सन् 1917 में छपी उनकी कहानी 'उपदेश' तथा सन् 1935 में छपी 'क़ातिल की माँ' में प्रेमचंद की राजनीतिक समझ तत्कालीन नेतृत्व की विफलता तथा सामाजिक जिम्मेदारी के प्रति लेखकीय चिंता स्पष्टत: देखी जा सकती है।
नवाबराय उर्फ धनपत राय उर्फ प्रेमचंद नामक उस लेखक को आज की तारीख में याद करना क्या जरूरी नहीं हो जाता है? समाज की आजादी इसी में है कि समाज अपने लेखक को स्मरण करना सीखे ।

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