- महावीर कुमार जैन
आज़मगढ़ जैसे छोटे कस्बे के नन्हे अख्तर हुसैन रिजवी ने जब अपनी पहली गजल 'इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े/हँसने से हो सुकूँन रोने से कल पड़े' पढ़ी, तब उसे खुद भी यकीन नहीं था कि एक दिन वह उर्दू अदब का अजीम शायर बनकर चमकेगा।
कैफी आजमी बड़े फख्र से बताते थे कि उनकी इस गजल को बेगम अख्तर ने सुरों में ढाला। आगे चलकर वे इंकलाबी माहौल में भी रूमानियत से भरपूर रहते थे। सन् 45 में मिल मालिकों की चार साँचा नीति के खिलाफ जब यह बीस वर्षीय नौजवान शायर पूरे जोश-खरोश के साथ मिल फाटक पर नारे लगा रहा था, उसके दिमाग में एक नज्म उभरी। उन्वान रखा 'एक बोसा।' नज्म की आरंभिक पंक्तियाँ 'जब भी चूम लेता हूँ इन हसीन आँखों को/सौ चिराग अँधेरे में झिलमिलाने लगते हैं' यह सुनकर मजदूरों ने हड़ताल की असफलता का सारा दोष कैफी के मत्थे मढ़ दिया, किंतु जब उन्होंने प्रेम व्यंजना के साथ अंतिम पंक्तियों 'लम्हे भर को ये दुनिया जुल्म छोड़ देती है/ लम्हे भर को सब पत्थर मुस्कुराने लगते हैं' सुनी तो उन्होंने नज्म को व्यापक सामाजिक संदर्भ में सहज भाव से स्वीकार किया।
चूँकि कैफी आजमी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वफादार एवं सक्रिय कार्यकर्ता थे, मजदूरों की जिंदगी और उनकी तकलीफों को वे गहराई तक महसूस कर सकते थे, उन्होंने जूता बनाने वाले मजदूरों की यूनियन बनाई। बीड़ी मजदूरों को संगठित किया। उस दौर में कैफी आजमी ही एकमात्र ऐसे शायर थे, जो वर्ग संघर्ष में मेहनतकशों के हमराह थे। पार्टी के प्रमुख पूर्णचंद्र जोशी का उन पर वरदहस्त था।
कैफी आजमी नज्म के शायर थे। गजल से हटकर नज्म के मैदान में उन्हें मार्क्सवादी चिंतन की अभिव्यक्ति के लिए अधिक गुंजाइश मिलती थी। वे लिखते हैं- 'ये भी जलना कोई जलना है कि शोला न धुआँ/ अब जला देंगे जमाने को जो जलना होगा।' 'दावत' की इन पंक्तियों में शोषित, पीड़ित और उपेक्षित सर्वहारा वर्ग की सरमाएदारों के खिलाफ खुली क्रांति की घोषणा है। मगर जब उनकी बनाई कम्युनिस्ट इकाई टूट गई, जिस आँच को उन्होंने वर्षों सुलगाए रखा, मद्धम पड़ गई तो उन्होंने टूटे दिल से कहा- 'इक यही सोजे-निहाँ कुल मेरा सरमाया है/ दोस्तों, मैं किसे ये सोजे-निहाँ नज्र करूँ' (आवारा सज्दे '62)।
आगे चलकर लेनिन जन्मशती के अवसर पर उन्होंने लेनिन का ध्यान इसी बिखराव की ओर आकर्षित करते हुए कहा- 'देखते हो कि नहीं/ हादिसा कितना कड़ा है कि सरे-मंजिले शौक/ काफिला चंद गिरोहों में बँटा जाता है।' शायर की पीड़ा यह है कि तमाम तालीम और तरक्की के बावजूद मानवीय मूल्य ढ़ूँढे नहीं मिलते।
'इब्ने मरियम' में कैफी ने सिर्फ मुंबई ही नहीं, तमाम मुल्क का नक्शा खींचा है और मानव जाति के कल्याण के लिए ईसा मसीह से एक बार फिर सूली पर चढ़ने की प्रार्थना की है। 'सोमनाथ' महज सौराष्ट्र नहीं, पूरे हिन्दुस्तान का दर्द समेटे है। 'जिंदगी' में उन्होंने ऋग्वेद, बौद्ध धर्म, ईसाइयत और इस्लाम के दर्शन को इंसानी रिश्तों के साथ प्रस्तुत किया। 'दूसरा बनवास' में छः दिसंबर की त्रासदी को आज भी महसूस किया जा सकता है। उनकी शायरी में मनुष्य आशा-आकांक्षा के साथ स्वयं को सीमाबद्ध पाता है- 'शौक ये है कि उड़े तो जमीं साथ उड़े/ हौसला ये है कि परवाज से घबराता है।' 'मकान' में समूचे मध्यम वर्ग की विवशता सुनाई पड़ती है- 'ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी/ पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने।'
धार्मिक अंधविश्वास और पाखंड की कलई खोलते हुए कैफी आजमी कहते हैं- 'एक गर्दन पे सैकड़ों चेहरे/ और हर चेहरे पर हजारों दाग/ और हर दाग बंद दरवाजा/ रोशनी इनसे आ नहीं सकती/ रोशनी इनसे जा नहीं सकती।' कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया गीता ज्ञान चंद पंक्तियों में समेट वे कहते हैं- 'न कोई भाई, न बेटा, न भतीजा, न गुरु/ एक ही शक्ल उभरती है हर आईने में/ आत्मा मरती नहीं, जिस्म बदल लेती है/ धड़कन इस सीने की जा छुपती है उस सीने में।'
कैफी आजमी एक मुशायरे में इंदौर तशरीफ लाए थे। मध्यांतर में उनसे एक गजल सुनाने की गुजारिश की गई। पूछने लगे कि आपने यह गजल कहांं सुनी? जवाब मिला बेगम अख्तर की आवाज में। कहने लगे कि आपको मेरी आवाज में वैसा असर सुनाई न देगा, फिर भी सुनिए। वे बेगम अख्तर की स्मृति में इतना खो गए थे कि गजल पूरी न सुना सके। इसी गजल का एक बेहतरीन शेर था- 'जो इक खुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों/ यहांं तो कोई मेरा हमजबाँ नहीं मिलता।' उल्लेखनीय है कि कैफी आजमी और बेगम अख्तर की संयुक्त आवाज में ऐसी चार गजलें दिल्ली रेडियो स्टेशन की अमूल्य धरोहर हैं।
कैफी आजमी की भाषा और शैली पर मीर अनीस का प्रभाव देखा जा सकता है। गालिब उनके प्रिय शायर थे। गालिब का सबक 'जो बात कहो, उसे लोगों का तजुर्बा बना दो', उन्होंने अपनी शायरी में उतारा। गालिब पुण्य शताब्दी वर्ष ('69) पर जारी एल.पी. रिकॉर्ड 'पोर्ट्रेट ऑफ ए जीनियस' में गालिब पर लिखा उनका आलेख उनकी वजनदार आवाज में सुनते हुए लगता है कि गालिब की आत्मा उनकी देह में बोल रही है। कैफी आजमी तरन्नुम में भले ही न पढ़ते थे, उनकी आवाज में वजन, गहराई और संजीदगी दिलो-दिमाग पर गहरा असर छोड़ती थी। लकवे से लाचारी के बावजूद जिंदगी से बेपनाह मोहब्बत देखकर एक शेर याद आता है-
'काटकर पर मुतमईन सय्याद बेपरवा न हो,
रूह बुलबुल की, इरादा रखती है परवाज का।'