स्वामी जी भारत की पिछड़ी दशा को देख कर चिंतित थे। उन्हें इस परिस्थिति का एक ही कारण समझ में आया कि जनता हिंदू धर्म के असली स्वरूप से अनभिज्ञ है। इसलिए उन्होंने हिंदू धर्म और साधना को ध्यान, धारण और समाधि के आदर्श को एकांत पर्वत और गुफाओं से अलग करके जनता के हित में, लोककल्याण के लिए जाग्रत किया। सवर्णों के दमन चक्र का उन्होंने पुरजोर विरोध किया। उनके विचार थे- 'यदि वंश परंपरा के नियमानुसार िसर्फ ब्राह्मण विद्या सीखने के अधिक योग्य हैं तो उनकी शिक्षा के लिए धन व्यय न करके अस्पृश्य जाति की शिक्षा के लिए सारा धन लगा दो। दुर्बल की सहायता पहले करो। इन पददलित मनुष्यों को उनका वास्तविक स्वरूप समझाना होगा। दुर्बलता के भेदभाव को छोड़कर प्रत्येक बालक-बालिका को सुना दो तथा सिखा दो कि सबल-निर्बल सभी के दिल में अनंत आत्मा विद्यमान है। अत: सभी महान बन सकते हैं। सभी योगी हो सकते हैं।' स्वामी जी के इस उद्बोधन से स्पष्ट होता है कि वे मानव के स्वाभाविक विकास में विश्वास रखते थे।
स्वामी जी की शिक्षा की आज समाज में नितांत आवश्यकता है। क्योंकि अपनी सब प्रकार की दुर्दशा, अवनति व दु:ख के लिए हम ही जिम्मेदार हैं। उन्होंने अवनत भारत को विश्व परिदृश्य में पुन: उन्नत करने का संकल्प लिया था। वे एक मंत्रदृष्टा, उन्नत कल्पनाशील, कवि ह्रदय मनीषी थे। उनकी हार्दिक इच्छा थी,एक ऐसे धर्म का प्रचार करना जिससे मनुष्य तैयार हो। जड़ता और कुरीतियों में जकड़े भारतवासियों को पुकार कर उन्होंने कहा था - 'उत्तिष्ठत: जाग्रत: प्राण्य वरान् निवोधत: इस धर्म पर किसी वर्ग विशेष का एकाधिकार नहीं है।'
ऐसे वीर साधक, युगपुरुष, कर्मयोगी स्वामी विवेकानंद को 'युवा भारत' और 'भारत का युवा' कभी विस्मृत नहीं कर सकता।