Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ खतम...

हमें फॉलो करें अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ खतम...

अजातशत्रु

PR
सन्‌ 1960 में आई थी फिल्म 'दिल अपना और प्रीत पराई।' उसी फिल्म का गीत है यह। शंकर-जयकिशन के विराट आर्केस्ट्रा/ मधुर संगीत/ अजेय अकॉर्डियन/ संजीवनी से भरी हुई ढोलक/ सूक्ष्म व कठिन कोरस/ बीट प्रधान पाश्चात्य रंग और लता मंगेशकर की किशोरी आवाज के प्राकृत शहद के कारण 'दिल अपना और प्रीत पराई' के गानों ने समूचे देश को पगला दिया था।

महज इस एक गीत को छोड़कर तब की जगप्रसिद्ध 'बिनाका गीतमाला' में 'दिल अपना और प्रीत पराई' के सभी गीत प्रवेश पा गए थे। अपने तूफानी माधुर्य से श्रोताओं की नसों में आग फूंक गए थे।

राजकुमार और मीनाकुमारी जैसे दिग्गज कलाकारों के कालजयी अभिनय ने फिल्म की दुःखद प्रेमकथा को अविस्मरणीय ऊँचाई प्रदान की थी और अर्से तक मीना हमारे हृदयों में ठंडी रात की उदास बयार की तरह बहती रही थी। फिल्म की कथा और राजकुमार-मीनाकुमारी के कारण वह दौर और उसके डिटेल्स हमारे जेहन में टंक गए और याद आने पर आज भी हमें जवान कर देते हैं।

'अजीब दास्ताँ...' फिल्म का पॉपुलर गीत नहीं था, मगर प्रबुद्ध समीक्षकों-श्रोताओं के लिए यह गीत खास मुकाम रखता है। इसमें आर्केस्ट्रा की बारीकियाँ, अवधारणा की उदात्तता, सृजनात्मक कल्पना की भावप्रधान, विलक्षण उड़ान, सरल मर्मस्पर्श कविता और अनोखी धुन की विस्मयकारी सादगी तो है ही, इनसे भी चढ़-बढ़कर है, किंचित रहस्यवादी वातावरण, जो इस गीत के बोल, गायन, धुन और कोरस की प्रेत-आवाजों से बनता आता है।

webdunia
IFM
ऐसा महसूस होता है, जैसे चारों तरफ पहाड़ियों से ढँके हुए, हम एक लंबी, हरी-भरी उदास वादी में से चले जा रहे हैं और इस वादी का न ओर है, न छोर है। अगर कुछ है तो एक खतम न होने वाला अधूरा सफर। उदास ऊँघते कदम। किसी को खो चुकने की कसक। तमाम अक्ल के बाद किसी को भूल न पाने की मजबूरी।

समूचा गीत अपनी इमेजरी और धुन से फिल्म की नर्स करुणा अर्थात मीनाकुमारी के इश्क की शिकस्त को साफ अंकित कर देता है। ऐसा लगता है, जैसे मेहँदी रचाने वाले दो हाथ वक्त के तंज के पानी से धुल गए और कलाइयों में उदास पड़ी चूड़ियाँ हरे-भरे मंडप के तले, अपना दुखड़ा गा उठीं।

गीत की खूबी यही है कि जीवन में महेशा कोई दरार, चूक और क्रूर मजाक है और हँसते-हँसते रोने की नौबत आ जाती है। इस बात को वह शब्दार्थ, धुन और आर्केस्ट्रा के मार्फत भलीभाँति ध्वनित करता है। आप कह सकते हैं कि 'अजीब दास्ताँ' एक सफल मूड-सांग है।

इस खूबसूरत, मार्मिक और अर्थप्रधान गीत को शैलेन्द्र ने लिखा था। उसी समझ और संवेदनशीलता के साथ युवा जयकिशन ने इसकी असाधारण धुन बनाई थी। आर्केस्ट्रा में जो अँगरेजी रात्रिकालीन संगीत आया है, विदेशी बीटों का इस्तेमाल करते हुए और जनाना आवाजों की प्रेत पुकारों को उभारते हुए वह थीम के अभिप्रेत दर्द को घना कर देता है।

पढ़िए गीत-
अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ खतम
ये मंजिलें हैं कौन सी, न तुम समझ सके न हम
(पूरा मुखड़ा दो बार)
ये रोशनी के साथ क्यों, धुआँ उठा चिराग से
(दो बार)
ये ख्वाब देखती हूँ मैं कि जग पड़ी हूँ ख्वाब से
अजीब दास्ताँ है...न हम!
मुबारकें तुम्हें कि तुम किसी के नूर हो गए-(2)
किसी के इतने पास हो कि सबसे दूर हो गए
अजीब दास्ताँ है...न हम!
किसी का प्यार लेके तुम नया जहाँ बसाओगे
(दो बार)
ये शाम जब भी आएगी, तुम हमको याद आओगे
अजीब दास्ताँ है...न हम

webdunia
FC
गौर कीजिए कि 'दिल अपना और प्रीत पराई' के सभी गीतों में आर्केस्ट्रा भारी भरकम है। वह जयकिशनी विराटता का अहसास कराता है। मगर इस गीत में सादगी और सीधापन अद्भुत है! ऐसा क्यों? इसीलिए कि महान जयकिशन का अपने आप से तर्क था कि ट्रेजेडी और दर्द सीधे-सादे, दो टूक होते हैं, जैसे जानलेवा बिजली आसानी से आशियाने पर गिर जाती है या कालीन पर एकदम सादगी से काँटा चुभ जाता है। कंसेप्शन के हिसाब से यह जयकिशन का ऐतिहासिक गीत है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi