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जीना यहाँ, मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ ..?

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अजातशत्रु

NDND
गौर कीजिए 'मेरा नाम जोकर' के सारे गाने ('तीतर के दो आगे तीतर' छोड़कर) ईको में यानी गूंज में फिल्माए गए हैं। गूंज में से उठने के कारण ये अनंत अतीत का, आदिकाल का, जन्मों के प्यार का, मौत के आगे का, जीवन की अनश्वरता का अहसास कराते हैं। इन्हीं के साथ शंकर-जयकिशन का आर्केस्ट्रा वैराट्य का और गांभीर्य का असर देता है।

अगर आप फिल्म नहीं देख रहे हैं, तो भी इन गानों के कारण व इनके संगीत के कारण आपको 'अनंत' में कैद होने की अनजान अनुभूति होती है, जैसे आप दो ऊंची पहाड़ियों के बीच तराई के स्पेस में बंद हैं और उन्हीं के बीच आने-जाने, जीने-मरने और कभी बाहर न जा पाने की सचाइयों में से गुजरते रहे हैं। ऐसा इसलिए कि राज साहब की 'जोकर' सिर्फ फिल्म नहीं है, वह एक फलसफा है जिंदगी का। वह आदमी के कैद और उसकी तड़प की कथा है।

जिंदगी एक सर्कस है। इस सर्कस के बीच अपने को पाने के बाद स्वयं सर्कस का स्पेस जो दूसरे लोगों से भरा हुआ है, आपसे तरह-तरह के रोल करवाता है और हीरो से जीरो तथा जीरो से हीरो बनाता रहता है। छुटकारे की खुली हवा यहां नहीं है। इसीलिए क्राइस्ट भी उदास हैं इसीलिए 'जोकर' भी उदास है। इसीलिए समूची फिल्म में आँसू के छींटे और गमगीनी है। 'जोकर' एक गीली फिल्म है।

राज कपूर एक उदास फिल्म देते हैं। यही वे दे सकते थे। यह ग्रीक ट्रेजेडियों के वैराट्य को छूती है और रोमन थिएटरों के भव्य फैलाव का अहसास कराती है। लगता है आप फिल्म नहीं, एक ब्रह्मांड के बीच में हैं और दर्द का धीमा बजता विराट आर्केस्ट्रा आप पर सब तरफ से हावी है। शो खत्म। शो शुरू होगा। सर्कस रुकेगा नहीं। उदास जोकर फिर आपको हँसा-हँसाकर लोटपोट करने आएगा। बुरा न मानें, आर्केस्ट्रा शुरू से आखिर तक चटक सुरों के नीचे मजाहिया रहेगा। इसी पृष्ठभूमि के साथ 'जोकर' का मशहूर गीत सुनिए-

जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ
जीना यहाँ मरना यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ
जी चाहे जब हमको आवाज दो, हम हैं वहीं हम थे जहाँ
अपने यहीं दोनों जहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ

ये मेरे गीत जीवन-संगीत कल भी कोई दोहराएगा
ये मेरे गीत जीवन-संगीत कल भी कोई दोहराएगा
जग को हँसाने बहरूपिया, रूप बदल फिर आएगा
स्वर्ग यहीं नर्क यहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ...
जी चाहे जब हमको आवाज दो
हम हैं वहीं, हम थे जहाँ
अपने यहीं दोनों जहाँ, इसके सिवा जाना कहाँ।

गौर कीजिए, गाने के अंदर मुकेश की आवाज अदम की घटियों से आती जान पड़ती है। गाने से ज्यादा आर्केस्ट्रा हमें घेरने लगता है, जैसे हालात आदमी पर हावी होते जाते हैं। इस गीत में मुकेश राजकपूर की आवाज नहीं हैं, जैसा हमेशा होता था। इस बार मुकेश इसलिए लिए गए हैं कि उनकी आवाज में कायनात की टक्कर में छोटे पड़ गए इंसान की, कुदरत के यतीम और नाचीज इंसान की, घुटन, कातरता और मार्मिकता बसती है। यह खुनक फिल्म के खालिस मकसद से एकदम मेल खाती है। इस सैडनेस को यहां मुकेशचंद्र माथुर के अलावा अन्य कोई इस टीस के साथ नहीं ला सकता था। राज और मुकेश दोनों बौने रह जाते हैं, इस गीत के सामने। आगे देखिए।

कल खेल में हम हों न हों, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा
भूलोगे तुम, भूलेंगे वो, पर हम तुम्हारे रहेंगे सदा
रहेंगे यहीं अपने निशाँ- इसके सिवा जाना कहाँ
जी चाहे जब हमको आवाज दो, हम हैं वहीं हम थे जहाँ
अपने यहीं दोनों जहाँ, इसके सिवा जाना कहा

इस गीत को शैलेन्द्र के बेटे शैली शैलेन्द्र ने लिखा था। इसमें शक नहीं कि सीधा-सादा लगने वाला यह गीत अनमोल है, क्योंकि जीवन के फलसफे को तीन मिनट की सीमा में, आमफहम भाषा में रख देना आसान काम नहीं है। राज कपूर के इस विराट कंसेप्ट के आगे सिर झुक जाता है और जाने क्यों डबडबाई आंखों की झील में नरगिस की तस्वीर तैर आती है।

दर्दे-मोहब्बत की सिसकियाँ हैं रातों में
चाँदनी में जो ताजमहल चमकता है।

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