पुकारता चला हूं मैं: कानों को इतना चिरागां भला रफी साहब और नैयर के अलावा कौन कर सकता था | गीत गंगा
पांच सौ सालों में कोई रफी दुबारा जन्म ले सकता है, पर एक बार प्रकट हो चुका नैयर दुबारा जल्वागर नहीं होता
- यह गीत अपनी धुन व मेलडी तथा रफी साहब की खूबसूरत प्रस्तुति के कारण पसंद है
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नैयर साहब ने धीमी, शांत व मीठी बीट्स बजाते हुए वाद्य संगीत का एक अलहदा अंदाज छेड़ा है
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'मेरे सनम' के इस गाने की धुन पर कबीलाई अतीत का असर है
सन् 65 के साल में जारी फिल्म 'मेरे सनम' के इस गीत को, जिसे रफी साहब ने गाया था एवं परदे पर विश्वजीत ने अदा किया था, आप सबने बिलाशक सुना है। यह गीत अपनी धुन व मेलडी तथा रफी साहब की खूबसूरत प्रस्तुति के कारण हम सबको पसंद है। बड़ी नरमी और नफासत के साथ रूह के रोम-रोम को गुदगुदा जाने वाली बात यह भी है कि नैयर साहब ने कम से कम साजों के दम पर, बिना शोरगुल के, बल्कि धीमी, शांत व मीठी बीट्स बजाते हुए वाद्य संगीत का एक अलहदा अंदाज छेड़ा है। इतने कम सामान पर मिठास और अपील का आलम रच जाना जीनियस का ही काम है। इतनी ही तारीफ रफी साहब की भी करनी पड़ेगी कि उन्होंने एकदम सधी हुई आवाज में, जैसे स्पेस के विस्तार में अपनी आवाज को मिला दिया हो और समूचे आलम के सुकूत से एकाकार हो गए हों, लजीज मेलडी के दीये जलाए हैं। कानों को इतना चिरागां भला रफी साहब और नैयर के अलावा कौन कर सकता था?
लेकिन इन तमाम बातों के बावजूद, इस गीत के बारे में बहुत कुछ कहना बाकी रह जाता है। बताइए, वह क्या है? मेरी समझ में वह चीज है इस गाने की धुन का मिजाज, उसका स्रोत और संगीतकार की चेतना का सोपान, जहां से इस गाने की तर्ज और लुत्फ देने की ताकत आती है। आपने महसूस किया होगा कि सभी संगीतकारों की धुनों में, भले ही वे कितनी भी 'ऑफ बीट' हों, एक किस्म का पहचानापन होता है, जैसे वह धुन हमने कभी सुनी है।
पर अकेले नैयर, और सिर्फ नैयर साहब ऐसे हैं जिनकी धुनें बिना किसी पूर्व-परंपरा के और बिना किसी उत्तर-अनुकरणीयता के नितांत अलहदा स्वरूप लिए होती हैं। वे जैसे प्रकृति में सीधा 'ब्रेक-थ्रू' या 'फ्रीक' हैं, जिनका आगा-पीछा नहीं मिलता। इस पैमाने से नैयर साहब समूचे संसार में, समूची मानव-सभ्यता में, एक अलग किस्म की पैदावार हैं और उन्हें रिपीट नहीं किया जा सकता। दूसरे, नैयर की धुनें- चलिए एक शब्द बनाऊं- विराट 'अफ्रीकी' अवचेतन से आती है। एक गहरे कबीलाई, जंगली अतीत से, जिसके कारण वे विश्व के तमाम श्रोताओं को, संस्कृति और भाषा के अवरोधों के बावजूद एक पहचाने, सुदूर अतीत की याद दिलाती हैं, जो वक्त के पार कहीं दफन हैं।
ऐसा मधुमति-टच कहीं-कहीं बर्मन, रवि और एन. दत्ता के वातावरण गीतों में है, वर्ना नैयर साहब इवोकेटिव संगीत के आदम हैं। उनका कोई सानी हो सकता है, यह कहना भी गलत है, क्योंकि वे तो 'अपवाद' हैं। 'मेरे सनम' के इस गाने की धुन पर कबीलाई अतीत का असर है।
मजरूह के बोल...
पुकारता चला हूं मैं, गली-गली बहार की
बस एक शाम ज़ुल्फ की, बस इक निगाह प्यार की
पुकारता चला हूं मैं...
ये दिल्लगी ये शोखियां सलाम की,
यही तो बात हो गई है काम की,
कोई तो मुड़ के देख लेगा इस तरह,
कोई नजर तो होगी मेरे नाम की,
पुकारता चला हूं मैं...
सुनी मेरी सदा तो किस यकीन से,
घटा तो सर से आ गई जमीन पे,
यही रही लगन तो ऐ दिले जवां,
असर भी हो रहेगा इक हसीं पे,
पुकारता चला हूं मैं...
दोस्तो, कहूंगा यही कि आपको यह गीत बेहद साधारण लगता है और आप इसे सुन-सुनकर विरक्त हो चुके हैं। लेकिन जरा गौर से इसे बार-बार सुनें। इसकी धुन के मिजाज को पकड़ने की कोशिश करें और भीतर से देखें कि रफी ने किस बारीकी और तलफ्फुज के कमाल के साथ इसे गाया है, तो आविष्कार की असाधारण नूतनता और रफी-नैयर की चमत्कारिक जीनियस आप पर प्रकट होना शुरू करेगी। एक वाक्य में कहूं तो यह कि हजार सालों में कोई लता और पांच सौ सालों में कोई रफी दुबारा जन्म ले सकता है, पर एक बार प्रकट हो चुका नैयर दुबारा जल्वागर नहीं होता। दैट्स ऑल!
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा खण्ड 2' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)