- सुशोभित सक्तावत
बिमल रॉय की फिल्म 'सुजाता' (1959) का मशहूर गीत है यह। संभवत: तलत का सर्वाधिक सुपरिचित, सर्वाधिक प्रतिनिधि गीत। तब तक तलत मुख्यत: दिलीप कुमार के लिए ही गाते थे, किंतु इस गीत की भाव-व्यंजना के लिए सचिन देव बर्मन को तलत से बेहतर कोई और नहीं सूझा। और फिर, यह गीत सुनील दत्त के धीरोदात्त नायक पर इतना रुचा कि दो साल बाद जब हृषिकेश मुखर्जी ने 'छाया' बनाई तो उसमें भी सुनील दत्त के लिए तलत से ही गवाया, याद कीजिए 'इतना ना मुझसे तू प्यार बढ़ा' और 'आंसू समझ के क्यूं मुझे आंख से तुमने गिरा दिया'।
इस गीत का सीक्वेंस अपने आपमें अनूठा। नायक फ़ोन पर नायिका को गीत सुना रहा है। नायिका की आंखों में आंसू हैं, होंठ कांपते हैं, गला रूंधा है (भला क्यूं न होगा, नायक का स्वर किसी नौका की भांति उसके अंत:स्तल की दूर-दिशाओं को जो पुकारता है?), नायक के होठों पर मुस्कान खेलती है, मंदस्मित है (भला क्यूं न होगी, वह उस एक के लिए अपने हृदय का गीत जो गा रहा है, जो कि उस गीत की इकलौती सम्राज्ञी है?)।
नायक के होठों पर वसंत है, पर यक़ीन मानिये, उसके मन में फाग का दाह धधकता है। नायिका की आंखों में सावन है, लेकिन यक़ीन मानिये, उसके हृदय में बहारों के तराने हैं (याद कीजिए, इसी फिल्म का वह गीत, 'काली घटा छाए मोरा जिया तरसाए')। दोनों के बीच एक बेमाप फ़ासला है, स्पेस का फ़ासला भी है और नियति ने जो बंधन सौंपे, वे भी।
फ़ासलों की अपनी शिद्दत होती है, कैफियत की रवायत होती है। शायर ने कहा था : 'फूल भी हों दरमियां तो फ़ासले हुए।' लेकिन वह वस्ल का गीत है, प्रणय का राग है, यहां, तलत के इस गीत में तो दूरियां जैसे स्वयं को गा रही हैं, यहां विप्रलंभ का गीत है, विरह का राग है। 'दूरियां सौंदर्य का मर्म होती हैं,' सिमोन वेल ने उचित ही तो कहा था।
फिल्म में एक सुस्पष्ट सोशल कमेंट्री। नायक उच्चकुल का है। गौरवर्ण, सुदर्शन, सुशिक्षित और नेहरूवादी आदर्शों से परिपूर्ण (उसके कमरे की दीवारों पर गांधी और टैगोर की तस्वीरें हैं)। नायिका दलित है। इस सामाजिक-जातिगत विभेद को अभिधा में चित्रित करने के लिए बिमल रॉय ने यहां नूतन को सांवले वर्ण में प्रस्तुत किया। किंतु जाति उसकी निम्न भले हो, नाम 'सुजाता' है। इसी तरह धीरोदात्त नायक का नाम है 'अधीर'।
इस प्रतीकात्मकता को और आगे बढ़ाएं। कृष्ण श्याम वर्ण के थे, उनकी समस्त प्रेमिकाएं-अभिसारिकाएं गौरवर्ण की हैं। राम सांवले थे, सीता गौर-धवल। शिव भी तो नीलकंठ हैं। वे चाहे जितने ओजस्वी-तेजस्वी चित्रित किए जाते रहे हों, शास्त्रीय मानकों के अनुरूप सुकुमार नायक वे कभी नहीं रहे, किंतु देवी सती के वे अभीष्ट हैं।
हिंदू मिथालॉजी में श्याम वर्ण बहुधा गौर वर्ण से उच्चतर स्तर पर प्रतिष्ठित रहा है, श्याम वर्ण बहुधा गौर वर्ण का अभीष्ट रहा है। काव्य में, गल्प में, अभिधाएं अकसर उलट जाती हैं और व्यंजनाओं का रूप धर लेती हैं। और इस फिल्म में तो बिमल रॉय ने जाने कितनी अभिधाओं को विपर्यस्त, अपदस्थ किया है।
तलत बेहद कोमल हैं। फूल भी उन्हें मारें तो उनके दिल पर घाव हो जाएगा, जबकि फूल ख़ुद घाव हैं, हंसते ज़ख़्म हैं। यह गीत तलत के उस भोले विश्वास का प्रतिनिधि स्वर है, जिसे कि सघन-उदात्त प्रेम हमारे भीतर विन्यस्त करता है। और नायिका की आंख का सावन, नायक के हृदय का फाग उस औदात्य का सम्वादी स्वर है। यह प्रेम में ही संभव है कि मन की दो भिन्न ऋतुएं एक अनश्वर समय की अभिन्न कड़ी बन जाएं।