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तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको....

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अजातशत्रु

महिलाओं और प्रेमी-प्रेमिकाओं ने इस गीत को खासतौर पर पसंद किया था। दौर साहिर की कलम पर मुग्ध था। जीवन के दुःख-दर्द को, प्यार की उलझनों को, रिश्तों की नाकामियों को, शिकस्ता दिलों की तन्हाइयों और उदासियों को, जीवन के मायावी स्वभाव को, वक्त के फरेबी मिजाज को, बात के बनते-बनते बिगड़ जाने को, इत्तफाकों के तल्ख रवैये को और एक जुमले में कहें तो रोमांस की विडंबना और मात को... साहिर ने सरल, आमफहम शब्दों में स्वच्छ पारदर्शिता के साथ उतारा था। पानी के जैसी भाषा में, बिना लय और प्रवाह तोड़े, बात करने की सहजता के साथ, गहरी से गहरी बात कह जाना- ऐसा हुनर, ऐसी खुशकिस्मत साहिर को ही नसीब हुए थे। उनकी शायरी का मर्कजी रंग उदासी को लिए हुए है।

साहिर ने दो महिलाओं से, अलग-अलग समय में, शिद्दत से प्यार किया था और ये दोनों महिलाएं नामचीन और आला दर्जे की हस्तियां थीं। सुप्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम और मशहूर पार्श्व गायिका सुधा मल्होत्रा। सुधा को साहिर ने शायद ज्यादा चाहा था। वे उनके साथ घर बसाना चाहते थे। पर सुधा के सख्त पिता, मजहब की भिन्नता और हालात ने इसे मुमकिन नहीं होने दिया। इस रिश्ते ने उनके मन पर गहरी खरोंचें छोड़ीं। 'चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों' सुधा प्रसंग पर लिया हुआ जाती गीत है। बाद में 'गुमराह' में (गायक महेंद्र कपूर) इस्तेमाल कर लिया था।

अर्से तक सुधा ने साहिर के गीत गाए थे। इस गीत को भी उन्हीं ने गाया था, मुकेश के साथ। इस गीत की धुन और संगीत भी उसी के तैयार किए हुए थे, जबकि फिल्म में एन. दत्ता का संगीत भी था। परदे पर इसे सुनील दत्त और जयश्री गाते हैं। फिल्म थी- दीदी। यह सन्‌ 1959 की बात है। गीत की धुन 'सैड' है और साहिर की मूल शायरी के मिजाज से मेल खाती है। खास खूबी है- खुद साहिर की शायरी। सूत्र वाक्यों की तरह उभरने वाले उसके जुमले, अर्थात वर्बल जनरलाइजेशंस, बातचीत करने के अंदाज-सा उसका सरल-सहज पद्य और फलसफाना सादगी... इस गीत को सबके गले का लॉकेट बना गई। गीत का अवसाद और दूसरी ओर, उसका प्रचंड आशावाद... जन-जन को छू गया।

कम्युनिस्ट साहिर ने इसमें निजी दुःख को ओछा, हेठा और मतलबपरस्त बतलाकर दुनिया के भूख-प्यास के व्यापक दर्द से जुड़ने की बात की थी। 'भूख मोहब्बत से बड़ा मसला है।' साहिर के इस गीत को बुद्धिजीवियों ने भी हाथोंहाथ उठा लिया था। गीत यहां सुनने से ज्यादा पढ़ने की चीज है। तराई से जैसे बादल उठता है, हौले से, उसी तरह सॉफ्ट आवाज में सुधा उठान लेती हैं और गीत को शुरू करती हैं। उनकी आवाज के साथ उदासी लिपटती चली जाती है।

उनका हिस्सा सुनिए, तो चित्र बनता है एक ऐसी छरहरी, नाजुक और संवेदनशील प्रेमिका का, जो समझदार है, समर्पित है और अंत तक प्यार करना तथा प्यार किए जाना पसंद करती है। एक जहीन और जागी हुई शहरी दोशीजा, जो मतलब परस्त अगर है भी तो मोहब्बत के इस आम रिवाज के तहत कि वह पूरी दुनिया को और उसकी तल्ख सच्चाइयों को दरकिनार करके अपने प्रेमी की बांहों में समा जाना चाहती है और उसे अपने में समा लेना चाहती है। उसके स्वर में इल्तिजा है, आरजू है, झिझक है और 'तुम समझ जाओ तो ठीक वर्ना किया ही क्या जा सकता है' वाली गमगीनी है। वह समझाने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकती और जिद करना बेकार है। ये तमाम शेड्स और किरदार की ऐसी शख्सियत सुधा जेहन में खड़ा करती हैं।

उधर मुकेश भी उतने ही शालीन, कोमल किंतु दृढ़ और व्यापक सोच वाले नवजवान को... मन की आंखों के सामने लाते हैं। प्यार उसे भी है और उतना ही सच्चा है। मगर उसका जमीर और अखलाक उसे यह नहीं मानने देता कि दुःख, हाहाकार और भूख-प्यास में डूबी हुई आसपास की दुनिया को, जो उसकी सांस से सटकर शुरू होती है और सांस छोड़ने तक उससे जुड़ी हुई है, अपने आत्मसुख में डूबकर नजरअंदाज कर जाए। नहीं, मोहब्बत एक से हो सकती है पर दुःखी तमाम आलम है। अपनी मोहब्बत के सीने पर पत्थर रखकर उसे, महबूबा के गेसुओं को फलोगते हुए, हजारों सिसकते, अनजान चेहरों के साथ जुड़ना होगा। बुनियादी हकीकत वही है। अकेला, सुखी शख्स माला का टूटा दाना है, जो मरघट के बगीचे में कहीं गिर गया है वगैरह-वगैरह।

कहना न होगा कि साहिर, सुधा और मुकेश गीत के सेल्फ-कंट्रेडिक्टरी नोट को अपनी-अपनी जगह से सफलतापूर्वक निभा जाते हैं। दौर की सचमुच मार्मिक लिरिक थी यह। पढ़िए गीत-
सुधा : तुम मुझे भूल भी जाओ तो ये हक है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है, तुम मुझे...तुमको।
मेरे दिल की, मेरे जजबात की कीमत क्या है,
उलझे-उलझे से खयालात की कीमत क्या है
मैंने क्यों प्यार किया, तुमने न क्यों प्यार किया
इन परेशान सवालों की कीमत क्या है
तुम जो यह भी न बताओ, तो ये हक है तुमको,
मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है

मुकेश : जिंदगी सिर्फ मुहब्बत नहीं कुछ और भी है
जुल्फो-रुखसार की जन्नत नहीं कुछ और भी है
भूख और प्यास की मारी हुई इस दुनिया में,
इश्क ही एक हकीकत नहीं कुछ और भी है
तुम अगर आंख चुराओ तो ये हक है तुमको
मैंने तुमसे ही नहीं, सबसे मुहब्बत की है।

और देखिए प्रेमिका का किरदार। वह प्रतिवाद नहीं करती। मोहब्बत के इस नाजुक तंतु को झटका नहीं देती। अपनी असहमति के बावजूद वह मोहब्बत के साथ खड़ी रह जाती है। गरज कि गीत एक किरदार को भी रचता है और उसे हमारे लिए सुहावना बनाता है।

सुधा : तुमको दुनिया के गमो-दर्द से फुर्सत न सही,
सबसे उल्फत सही, मुझसे मोहब्बत न सही
मैं तुम्हारी हूं यही मेरे लिए क्या कम है
तुम मेरे होके रहो, ये मेरी किस्मत न सही
और भी दिल को जलाओ तो ये हक है तुमको
मेरी बात और है मैंने तो मोहब्बत की है

सोचिए, ऐसे तर्क-वितर्क को, जो गद्य में ही संभव है, कविता के मीटर में बांधकर और बातचीत के लहजे को बरकरार रखके, साहिर कितना बड़ा काम करते हैं। गीत उस दौर को कुछ पलों के लिए खूबसूरत बना गया था और अवाम को, रोजमर्रा की जहालत व गंदगी के बीच, मीठे अवसाद की खुशबू से भर गया था। यह फूलों की झाड़ू से फिजां को बुहारने का काम था, सो साहिर ने बखूबी किया। अब ऐसे नग्मे, शायरी, कथा-कहानियां, जोड़े, नजाकत और प्यारी-सी जवाबदेही कहां!

जिंदगी क्या चीज है आज ऐ दोस्त
सोचें और उदास हो जाए

बजा फरमाया था फिराक साहब आपने।

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