Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

मोहब्बत के धोखे में कोई ना आए...

- अजातशत्रु

हमें फॉलो करें मोहब्बत के धोखे में कोई ना आए...
FCFC
सरल, सीधी-सादी धुन। इने-गिने वाद्य। संगीत, मात्र गायन को सहारा देने के लिए और युवा रफी की साफ-स्वच्छ छनी हुई आवाज, जिसमें आप उनके दिल की एक-एक धड़कन और भाव की नरम टहनी की एक-एक लोच पढ़ सकें। गीत सीधे दिल को छू जाता है। न सिर्फ छू जाता है, बल्कि अहसास कराता है कि किसी वास्तविक प्रसंग में किसी वास्तविक भग्नहृदय प्रेमी ने वास्तव में अपना वास्तविक दर्द गाया है। इतना स्वाभाविक है यह रफी नगमा... कि हमारे बीच से सिनेमा को एकदम हटा देता है और हमें हिंदुस्तान के किसी गाँव में ले जाता है।

जहाँ कोई भोलाभाला बैजू या सीधा-सरल गोकलप्रसाद, किसी अमराई के तले, बड़े विरोग से अपना दर्द गा रहा है। ऐसा दर्द, जो उस दुलारी या सरस्वती के कारण है, जो अंततः किसी और के साथ हाथ पीले करके चली गई या माँ-बाप के कहने पर किसी बड़े घराने को पसंद कर लिया, जिस ओर उसका भी कुछ-कुछ रुझान था। सिचुवेशन्स कई हो सकती हैं और आप अपनी स्मृतिगत पृष्ठभूमि के हिसाब से इस गीत में अपने-अपने 'विजुवल्स' देख सकते हैं। मगर सच यह है कि ग्रामीण इनसान-सा यह सीधा-सादा गीत अपनी अपंकिल अनौपचारिकता में हमें बहा ले जाता है और किसी हरी-भरी झाड़ी में अटका देता है। ऐसा शायद इसलिए कि हमारी आत्मा संभवतः आज भी ग्रामीण है और हमें ऋजुता, सचाई और सादगी को पसंद करने के लिए विवश करती है। फिर हमारा अस्तित्व युगों-युगों की अनजान स्मृतियों के सिवा क्या है!

इस गीत को रफी साहब ने फिल्म 'बड़ी बहन' (1949) में गाया था। राजेन्द्र कृष्ण ने इसे जैसे बाएँ हाथ से लिखा था और उतनी ही करीबतर व भावप्रधान धुन हुस्नलाल-भगतराम ने बनाई थी। इस गीत पर ग्रामीण सादगी और अवामी सहजता का बड़ा असर है, जैसे तब शहर और मेट्रॉपोलिस थे ही नहीं, जो कुछ था सो कस्बा था। प्राइमरी स्कूल का मास्टर था और मालगुजार की सीधी-सादी, जवान, सुंदर मोड़ी जो अपने से भी छिप-छिपकर 'मास्साब' को प्यार करती थी...। गीत एक गुजरे जमाने की याद दिला देता है।

परदे पर यह गीत युवा रहमान पर आया था, जिन्हें आपने साहब बीवी और गुलाम, चौदहवीं का चाँद और दिल दिया दर्द लिया जैसी फिल्मों में प्रौढ़ अभिनेता के रूप में देखा था। सुरैया के साथ रहमान की जोड़ी बहुत मशहूर हुई थी। सन्‌ 50-52 के दिनों में हम स्कूली बच्चे आपस में कुछ ऐसा खेल खेलते थे- 'ए मेहमान बोल मेहमान।' दूसरा लड़का बोलता- 'मेहमान।' इस पर पहला लड़का बोलता- 'तू सुरैया, मैं रहमान।' हालाँकि हममें से तब शायद ही कोई रहमान को जानता था। 'बड़ी बहन' में सुरैया ही रहमान की हीरोइन थीं। गीताबाली ने सेकंड लीड में काम किया था... हरहराती नदियों के वे दिन अब इस ढलती उम्र में किस कद्र याद आते हैं! मैं अपने आपसे बार-बार पूछता हूँ- 'इस गीत में आखिर मोहता क्या है?' और बार-बार एक ही जवाब आता है- इस गीत की सादगी। सघन सपाटपन और रफी की अत्यंत संवेदनशील मीठी आवाज। इस दौर में रफी की आवाज खुली खिड़की की तरह इतनी पारदर्शी और फूल की पंखुड़ी की तरह इतनी जीवंत है कि लगता है, दर्द खुद मर्तबान में तैरती एक बाल-मछली है, जिसका हाँफना हमारे भीतर तरंगित हो रहा है। जटिलता और चकमेबाजी के इस युग में ऐसा सुघड़-सपाट बंदिश और केले के पत्ते-सा सीधा गायन हमें शिप्रा या नर्मदा में डुबकी लगाने-सा शीतल अहसास देता है!

मेरे मित्र कंचन चौबे (हरदा) जो अब शिक्षकीय में रिटायर्ड हो चुके हैं और बिस्तर पर पड़े-पड़े अकसर 48-50 के दौर के फिल्मी गाने सुना करते हैं, कहते हैं- 'सच यह है अजातशत्रु ये पुराने फिल्मी नगमे ही अब मुझे थोड़ा तरोताजा रखते हैं। बस इन्हीं के सहारे मैं वक्त को धोखा देकर अपने बचपन में लौट जाता हूँ और उसमें बंद हो जाता हूँ।' सोचता हूँ यह उनकी, मेरी नहीं, हम जैसे अनेक बुजुर्गों की दास्ताँ है। क्या पता निर्मल वर्मा भी गुनगुनाते हों- 'ओ आस्मा वाले, तेरी दुनिया से जी घबरा गया?'

पढ़ें गीत के बोल :
मुहब्बत के धोखे में कोई न आए, कोई न आए
ये एक दिन हँसाए तो सौ दिन रुलाए, सौ दिन रुलाए
मुहब्बत के धोखे में...
मुझे जब किसी से मुहब्बत नहीं थी, मुहब्बत नहीं थी
तो आँखों को रोने की आदत नहीं थी, आदत नहीं थी
मोहब्बत में आँखों में आँसू बसाए, आँसू बसाए
मोहब्बत के धोखे में कोई न आए, कोई न आए!
मेरे दिल को देखो जो धोखे में आया, धोखे में आया
मोहब्बत का एक गीत भूले से गाया, भूले से गाया
मगर रात-दिन अब करे हाय, हाय, करे हाय, हाय
मोहब्बत धोखे में.../ ये दिन हँसाए... रुलाए
मोहब्बत के धोखे में कोई न आए, कोई न आए!

लगता ही नहीं कि यहाँ रफी गा रहे हैं। गा रहा है तो बस किरदार। मोहब्बत का भिखारी। और भिखारी इसलिए कि रफी ने इसे गिड़गिड़ाते घिघियाते भिखारी की तरह ही गाया है। तब ऐसी 'लाउड' भावुकता ज्यादा अपील करती थी। नोट करने लायक बात यह है कि रफी यहाँ सिद्ध कर देते हैं कि गायन और उसकी बारीकियों को वे लिखाकर लाए थे। गुलूकारी के राज बताने की उन्हें जरूरत नहीं है। साफ-शुद्ध रिकॉर्डिंग के इस गीत में वे कानों के इतने करीब लगते हैं कि महसूस होता है वे जिंदा हैं और दो-तीन मकान छोड़कर इसी गली में आगे कहीं रहते हैं!

वीराँ है मयकदा, खुमो-सागर उदास है
तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi