आज जिस गीत को उठाया गया है, उसकी मेलोडी का जवाब नहीं। सन् 56 में यह रास गीत जारी हुआ। वैसे हिन्दी फिल्म संगीत में और भी रास गीत मिलते हैं, पर इस गीत की मिठास तक कोई नहीं पहुँचता। इसमें उत्सव का रंग और ढोलक की फूटती जवानी महसूस करते बनती है।
सरस्वती कुमार दीपक की कलम से उतरा और अजीत मर्चेंट की धुन और मीठे-मादक आर्केस्ट्रा में आबद्ध यह गीत वनप्रांतर के झरने-सा खिलखिलाता, हरहराता बहता जाता है। मन को इस आकुलता-बेकली से भरता है कि हाय, अब क्या किया जाए।
कहर ढाती है युवा आशा की मादक, नुकीली और मधुर आवाज। ऐसा लगता है कि किसी कुँवारे जंगल की खुशबू हमें सब ओर से घेरती चली जा रही है और अनेक बूटियों की गंध हमारी रगों की पलकों को खोलती जा रही है। धुन इतनी मीठी है और ढोलक की लीड में चलता आर्केस्ट्रा इतना खुशगवार है कि कुछ पल को ऐसा लगता है कि दुनिया में सब ओर बहार ही बहार है। जवानी ही जवानी है। ताजगी ही ताजगी है।
इस गीत की जान हैं पाँचवें दशक की युवा, भोली-भाली और जीवंत आशा। उनके गले का कम्पन और मादक नुकीलापन यहां सुनते ही बनता है। धुन मीठी और तालप्रधान है। उसे गाने में आशा को और भी मजा आता है। यह अतिरिक्त उत्साह गीत को गायक के अपने माधुर्य से लबालब कर देता है। वो लोच, वो तोड़, वो झटका, वो पॉज और आवाज की वो कमसिनी- जो इस गीत में आशा की खुसूसियत बनते हैं- श्रोता के दिल पर गाज गिराते चलते हैं।
कोरस भी अपनी जगह जीवंतता से अपने काम को अंजाम देता है। मन आनंद से छक जाता है और एक प्यारी-सी विकलता तड़पाने लगती है। आखिर इस सौंदर्य को किन बाँहों में भर लिया जाए? इस ताजी हवा को किस गठरी में बाँधकर कोठरी में छिपा दिया जाए? फिल्म 'इंद्रलीला' की इस खूबसूरत मेलोडी को आप सुनिए। पहले पढ़िए, बोल-
आशा : यमुना के तीर, सखी,
बजते मजीरे सखी,
कान्हा रचाए है रास,
हो सखी कान्हा रचाए है रास!
सखियां : (इन ध्रुव-पंक्तियों को रिपीट करती हैं)
आशा : आज उठी मन में मेरे मीठी हिलोर (तदुपरांत कोरस, यही पंक्ति)
गूंज रहा कानों में मुरली का शोर (कोरस, यही पंक्ति)
कोरस : यमुना के तीर...
रचाए है रास...सखी,
कान्हा... रास!
आशा : बोल रही आज मेरे मन की पायलिया
सांसों की सरगम में गूंजे मुरलिया
कोरस : हो, गूंजे मुरलिया, हो, गूंजे मुरलिया
आशा : देखो सखी नाच रहे मधुवन में मोर (कोरस दोहराता)
झूम रहे, नाच रहे चंदा-चकोर (कोरस, दोहराता)
कोरस : यमुना के तीर... रचाए है रास...
सखी, कान्हा... रास।
आशा : राधा के संग सखी नाचे सांवरिया,
लहरों के संग हुई यमुना बावरिया
कोरस : हो यमुना बावरिया, हो यमुना बावरिया
आशा : मोहन ने बांधी है गीतों की डोर (कोरस रिपीट्स)
आशा : मन में बसा है मेरे माखन का चोर (कोरस रिपीट्स)
कोरस : यमुना के तीर सखी (गीत-संगीत तेज से तेजतर होता जाता है और फिर समाप्त)।
सुनते समय इस बात को जरूर ध्यान में रखिए कि आप गुजरे जमाने का गीत सुन रहे हैं। जब भारत की आत्मा गाँवों में, कस्बों में, खेतों में, खलिहानों में, खेत-जंगल की हरियाली में, पनघट पर और त्योहारों के कोरसी गीतों में केंद्रित थी।
उसी हिसाब से तब गीतों की धुनें और संगीत दोनों होते थे। ये हमारे मनों को छूते थे, क्योंकि इसी देश की मिट्टी से हम उपजे थे और यहां की हवा-बयार को पीते हुए हमारे मन बने थे। आज भी अपनी जड़ों में हम कहीं न कहीं हिन्दुस्तानी हैं और इसीलिए तब की मेलडियां हमारे सिर पर सवार होकर अपनी तारीफ में कसीदा पढ़वा ही लेती हैं।
इस रास गीत की धुन-शैली से मिलते-जुलते और भी कोरस गीत आए थे। जैसे 'आई बैरन बहार' (बारादरी)/ देखो-देखो... निहार, ऋतु आई बसंत बहार (हरिहर भक्ति)/ बता दो जरा सखियों री मेरे मन की बात (चमक चांदनी)/ आज मेरे मन में सखी बांसरी बजाए (आन)/ शाम ढले खिड़की तले (अलबेला)/ मैं तो भूल चली बाबुल का देश (सरस्वतीचंद्र)।
मगर अजीत मर्चेंट की बंदिश और आर्केस्ट्रा की बात और है। उसमें गुजराती गरबे का रंग असलियत के बहुत करीब होकर गुजरता है। ऐसा शायद इसलिए भी कि अजीतजी स्वयं गुजराती हैं और उनका मन गुजराती संस्कृति से रचा-बसा है।
आज रास गीतों में दिल को छू लेने वाली ऐसी मधुर धुनें कहां मिलती हैं!...वही है शाहिदो-साकी मगर दिल बुझता जाता हैवही है शम्मां लेकिन रोशनी कम होती जाती है, वही है जिंदगी लेकिन 'जिगर' ये हाल है अपना कि जैसे जिंदगी से जिंदगी कम होती जाती है।