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ऊँचा तुझे उड़ाएगा तेरा ही विश्वास

दोहे

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इब्राहीम 'अश्क'
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दो मिसरों का खेल है, लिख दे इक इतिहास
है दोहे के फूल में, सदियों की सुबास।

होवे फिक्र 'कबीर' की 'खुसरो' जैसा ज्ञान
'मीरा' 'सूर' 'रहीम' है, दोहे की पहचान

चिड़िया बैठ मुंडेर पे, बोले मीठे बोल
सुन बनिये इस बोल का, कर सकता है मोल

नई सदी है सामने, कितने नए सवाल
आँखें तकती रह गई, इतने उठे बवाल

इतने कडुवे मत बनो, पास न कोई आए
इतने मीठे मत बनो, दुनिया चट कर जाए

बरगद जैसी छाँव में, मिला बुद्ध का ज्ञान
इक साया मिल जाए तो, मिले मुझे निर्वाण

खेत, कुएँ, खलिहान की, हमसे पूछो बात
लगी हवा जो शहर की, बदल गए देहात

कल क्या थी क्या हो गई, बस्ती की तस्वीर
दंगे भी लिखने लगे, शहरों की तकदीर

अपनी करनी आप ही, करती है बेहाल
डसने वाला नाग भी, होवे आप निढाल

रूप, रुपय्या, राज का, कितने रोज गरूर
इक दिन ये सब आईने, हो जाते हैं चूर

जिसमें जितना हौंसला, उतनी ही परवाज
पँछी जब उड़ने लगे, खुल जाएँ सब राज

शर्म, हया, अखलाक ही, औरत का श्रृँगार
नीची हो नजरें भले, ऊँचा हो किरदार

इन्सानों की भीड़ में, हर कोई अनजान
गुण हैं तेरे पास तो, पैदा कर पहचान

घर घर में अब आग है, बाहर है कोहराम
ऐसे में इस देश का, क्या होगा अंजाम?

ऊँचा तुझे उड़ाएगा, तेरा ही विश्वास
मिट्टी है तो क्या हुआ, छू उड़के आकाश

मंजिल-मंजिल क्या करे, मंजिल पीछे छोड़
ढूंढे हर मंजिल तुझे, इतना आगे दौड़

साभार-शेष

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