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कब तक ढोएँ इतिहासों के किस्से

- सरोज कुमार

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हमें फॉलो करें सरोज कुमार
इसने मस्जिद तोड़ी,
उसने मंदिर तोड़े,
सबने खाए,
इतिहासों में सौ-सौ कोड़े।

घृणा, शत्रुता, हिंसा,
पागलपन की करनी,
खून सनी बहती आई,
काली वैतरणी।

गया जमाना गुजर,
नया नदियों में पानी,
अपराधों की,
भारी कीमत पड़ी चुकानी।

कब तक ढोएँ,
इतिहासों के काले किस्से?
क्या उजला इतिहास नहीं,
हम सबके हिस्से?

निकलें इस बस्ती को,
सुख-सपनों से भरने,
प्यार, मोहब्बत की
शम्मा से रोशन करने।

नई इबारत लिखें,
सलूकों की हिल-मिलकर,
जीवन है उपहार,
जिएँ फूलों-सा खिलकर।

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