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क्या करूँ, ले लूँ छुट्टी कल की

-अजीत चौधरी

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क्या करूँ, कल की छुट्टी ले लूँ
और चौंका दूँ सूरज को
घर में बिना हड़बड़ाए बिस्तर पर लेटे-लेटे
एक दिन के लिए अपनी पहचान खोकर
आज सचमुच घूमने निकलूँ बिना झोला लिए
आज खासतौर से देखूँ वह पेड़
जो मेरे घर की पहचान है
क्या करूँ कल की छुट्टी ले लूँ
और बादलों की अंतरंग आर्द्रता में खोल दूँ अपनी आँखें
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फिर नब्ज़ पकडूँ किसी अधूरी कविता की
खोलकर गठरी कागज-पत्तरों को धूप दिखाऊँ
इस दिन मैं पढूँ तारों-नक्षत्रों की कोई किताब
और अंदाजा करूँ कि इस मौसम की तारीख में
वे कहाँ-कहाँ उगे होंगे
आज की रात मैं आसमान देखूँ बच्चे की तरह
सड़कें जहाँ पहुँचते-पहुँचते अकेली होने लगती हैं
वहाँ मैं सड़क से हटकर कहीं दूर निकल जाऊँ
वहाँ से मैं सड़क को देखूँ और सड़क मुझे
क्या करूँ, ले लूँ छुट्टी कल की।

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