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मैं अपने से डरती हूँ सखी!

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माखनलाल चतुर्वेदी

पल पर पल चढ़ते जाते हैं,
पद-आहट बिन, रो! चुपचाप
बिना बुलाये आते हैं दिन,
मास, वरस ये अपने-आप

लोग कहें चढ़ चली उमर में
पर मैं नित्य उतरती हूँ सखी!
मैं अपने से डरती हूँ सखी!

मैं बढ़ती हूँ? हाँ, हरि जानें
यह मेरा अपराध नहीं है,
उतर पड़ूँ यौवन के रथ से
ऐसी मेरी साध नहीं है,

लोग कहें आँखें भर आईं,
मैं नयनों से झरती हूँ सखी!
मैं अपने से डरती हूँ सखी!

किसके पंखों पर, भागी
जाती हैं मेरी नन्हीं साँसें?
कौन छिपा जाता है मेरी
साँसों में अनगिनी उसाँसें ?

लोग कहें उन पर मरती है
मैं लख उन्हें उभरती हूँ सखी!
मैं अपने से डरती हूँ सखी!

सूरज से बेदाग, चाँद से
रहे अछूती, मंगल-वेला,
खेला करे वही प्राणों में,
जो उस दिन प्राणों पर खेला,

लोग कहें उन आँखों डूबी,
मैं उन आँखों तरती हूँ सखी!
मैं अपने से डरती हूँ सखी!

जब से बने प्राण के बन्धन,
छूट गए गठ-बन्धन रानी,
लिखने के पहले बन बैठी,
मैं ही उनकी प्रथम कहानी,

लोग कहें आँखें बहती हैं,
उनके चरण भिगोने आएँ
जिस दिन शैल-शिखिरियाँ उनको,
रजत मुकुट पहनाने आएँ,

लोग कहें, मैं चढ़ न सकूँगी-
बोझीली, प्रण करती हूँ सखी!
मैं नर्मदा बनी उनके,
प्राणों पर नित्य लहरती हूँ सखी!
मैं अपने से डरती हूँ सखी!

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