1. मैं दर्पण ही तो हूं तुम्हारा- छंदमुक्त
मैं दर्पण ही तो हूं तुम्हारा
संवारा है नित्य तुमको विभिन्न कोणों से
तुम में साकार होना मैंने स्वीकार लिया।
किंतु तुमने?
तुमने सदैव समझा मुझे वस्तु उपभोग की
बदलने को भी आतुर रहे क्षण-क्षण
गंदलाते रहे अपनी कलुषित कामनाओं से।
परिणाम स्वयं देख लो
आज विवश हो चुके हो धुंधलेपन के साये में
निस्तेजता से अनभिज्ञ, भ्रमित
कितनी दूर चले गए न सार्थकताओं से।
उफ!!!
काश! समय रहते समझ लिया होता
हमारा अस्तित्व समानुपाती है, व्युत्क्रमानुपाती नहीं।
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2. मूल्य समर्पण का- छंदमुक्त
जब-जब तुम करीब लगे
अहसास कराया है दूरियों ने भी
अपनी मौजूदगी का।
दायरों ने दिखाई है धमक
ठठाकर हंसी हैं वर्जनाएं
अभिशप्त से विवश।
वापस लौट गए भाव
अंतस की उन्हीं गहराइयों में
जहां से आए थे वो कुछ सपने लेकर
जो अब चैतन्य नहीं।
ठीक भी है
लिप्साओं ने कब समझा है
मूल्य समर्पण का
दहकती भट्ठी सदैव मांगती है
नया-नया ईंधन।
मूढ़ तो वो है जो अर्पित करता है
नित्य शीतल जल ठूंठ को
प्रयास करता है
समुद्र के खारेपन के नाश का।