एक दो पैसे की पुड़िया में कभी मुझ गरीब के नाम,
क्या कोई लेकर आएगा मेरे लिए जीने का पैगाम?
मुखौटे लगाकर और खूबसूरत लफ्जों की जुबान,
क्या मुझे सड़क से उठाकर कभी कोई देगा आराम।
कुछ थोड़ी-सी चांदनी, लाकर कुछ थोड़ी-सी धूप
मेरे पेट में जलती हुई, कब मिटेगी, ये मेरी भूख।
मांगू थोड़ी-सी हंसी, फिर चाहूं थोड़ी-सी खुशी
एक मैली फटी-सी चादर, क्या यही है मेरी बेबसी!
बंदरबांट से बंट गए हैं, धरती मां के दाने-दाने,
खाली चूल्हा, गीली लकड़ी पे कैसे अरमान पकाएं।
लोग कहते हैं कि मजलूम का कोई घर नहीं होता,
फरिश्तों की दुआओं में शिद्दत और रहम नहीं होता।
आज मैं इस सड़क पे एक चुभन लिए पल रहा हूं
पूछो तो सही जन्म से ही, कैसे मर-मर के मर रहा हूं।
क्या मेरी गरीबी और भूख की पहचान कभी बदलेगी,
क्या वो दो पैसे की पुड़िया मेरा भाग्य भी बदलेगी?