- गीतकार गोपालदास नीरज
हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध कवि एवं गीतकार गोपालदास नीरज की जयंती है। यहां पढ़ें उनकी लोकप्रिय कविताएं...
1. मेरा गीत दीया बन जाए
अंधियारा जिससे शरमाए,
उजियारा जिसको ललचाए,
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दीया बन जाए!
इतने छलकों अश्रु थके हर
राहगीर के चरण धो सकूं,
इतना निर्धन करो कि हर
दरवाजे पर सर्वस्व खो सकूं
ऐसी पीर भरो प्राणों में
नींद न आए जनम-जनम तक,
इतनी सुध-बुध हरो कि
सांवरिया खुद बांसुरिया बन जाएं!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दीया बन जाए!!
घटे न जब अंधियार, करे
तब जलकर मेरी चिता उजेला,
पहला शव मेरा हो जब
निकले मिटने वालों का मेला
पहले मेरा कफन पताका
बन फहरे जब क्रांति पुकारे,
पहले मेरा प्यार उठे जब
असमय मृत्यु प्रिया बन जाए!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दीया बन जाए!!
मुरझा न पाए फसल न कोई
ऐसी खाद बने इस तन की,
किसी न घर दीपक बुझ पाए
ऐसी जलन जले इस मन की
भूखी सोए रात न कोई
प्यासी जागे सुबह न कोई,
स्वर बरसे सावन आ जाए
रक्त गिरे, गेहूं उग आए!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दीया बन जाए!!
बहे पसीना जहां, वहां
हरयाने लगे नई हरियाली,
गीत जहां गा आय, वहां
छा जाए सूरज की उजियाली
हंस दे मेरा प्यार जहां
मुसका दे मेरी मानव-ममता
चन्दन हर मिट्टी हो जाए
नन्दन हर बगिया बन जाए।
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दीया बन जाए!!
उनकी लाठी बने लेखनी
जो डगमगा रहे राहों पर,
हृदय बने उनका सिंघासन
देश उठाए जो बाहों पर
श्रम के कारण चूम आई
वह धूल करे मस्तक का टीका,
काव्य बने वह कर्म, कल्पना-
से जो पूर्व क्रिया बन जाए!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दीया बन जाए!!
मुझे श्राप लग जाए, न दौडूं
जो असहाय पुकारों पर मैं,
आंखे ही बुझ जाएं, बेबेसी
देखूं अगर बहारों पर मैं
टूटे मेरे हाथ न यदि यह
उठा सकें गिरने वालों को
मेरा गाना पाप अगर
मेरे होते मानव मर जाए!
ऐसा दे दो दर्द मुझे तुम
मेरा गीत दीया बन जाए!!
2. मुझे न करना याद...
मुझे न करना याद, तुम्हारा आंगन गीला हो जाएगा।
रोज़ रात को नींद चुरा ले जाएगी पपीहों की टोली,
रोज़ प्रात को पीर जगाने आएगी कोयल की बोली।
रोज़ दुपहरी में तुमसे कुछ कथा कहेंगी सूनी गलियां,
रोज़ सांझ को आंख भिगो जाएंगी वे मुरझाई कलियां।
यह सब होगा, पर न दुखी होना तुम मेरी मुक्त-केशिनी!
तुम सिसकोगी वहां, यहां पग बोझीला हो जाएगा,
मुझे न करना याद, तुम्हारा आंगन गीला हो जाएगा।
कभी लगेगा तुम्हें कि जैसे दूर कहीं गाता हो कोई,
कभी तुम्हें मालूम पड़ेगा आंचल छू जाता हो कोई।
कभी सुनोगी तुम कि कहीं से किसी दिशा ने तुम्हें पुकारा,
कभी दिखेगा तुम्हें कि जैसे बात कर रहा हो हर तारा।
पर न तड़पना, पर न बिलखना, पर न आँख भर लाना तुम!
तुम्हें तड़पता देख विरह शुक और हठीला हो जाएगा,
मुझे न करना याद, तुम्हारा आंगन गीला हो जाएगा।
याद सुखद बस जग में उसकी, होकर भी जो दूर पास हो,
किन्तु व्यर्थ उसकी सुधि करना, जिसके मिलने की न आस हो।
मैं अब इतनी दूर कि जितनी सागर में मरुथल की दूरी,
और अभी क्या ठीक कहां ले जाए जीवन की मजबूरी।
गीत-हंस के साथ इसलिए मुझको मत भेजना संदेशा,
मुझको मिटता देख तुम्हारा स्वर दर्दीला हो जाएगा,
मुझे न करना याद, तुम्हारा आंगन गीला हो जाएगा।
मैंने कब यह चाहा, मुझको याद करो, जग को तुम भूलो?
मेरी यही रही ख्वाहिश बस मैं जिस जगह झरूं तुम फूलो।
शूल मुझे दो, जिससे वह चुभ सके न किसी अन्य के पग में,
और फूल जाओ, ले जाओ, बिखराओ जन-जन के मग में।
यही प्रेम की रीति कि सब कुछ देता, किन्तु न कुछ लेता है,
यदि तुमने कुछ दिया, प्रेम का बंधन ढीला हो जाएगा,
मुझे न करना याद, तुम्हारा आंगन गीला हो जाएगा।
3. नींद भी मेरे नयन की...
प्राण! पहले तो हृदय तुमने चुराया,
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।
बीत जाती रात हो जाता सवेरा,
पर नयन-पंछी नहीं लेते बसेरा,
बन्द पंखों में किये आकाश-धरती,
खोजते फिरते अंधेरे का उजेरा।
पंख थकते, प्राण थकते, रात थकती
खोजने की चाह पर थकती न मन की,
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।
स्वप्न सोते स्वर्ण तक अंचल पसारे,
डालकर गल-बांह भू-नभ के किनारे,
किस तरह सोऊं मगर मैं पास आकर,
बैठ जाते हैं उतर नभ से सितारे।
और हैं मुझको सुनाते वह कहानी
हैं लगा देते झड़ी जो अश्रु-धन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की
सिर्फ क्षण भर तुम बने मेहमान घर में,
पर सदा को बस गये बन याद उर में,
रूप का जादू दिया वह डाल मुझ पर,
आज मैं अनजान अपने ही नगर में।
किन्तु फिर भी मन तुम्हें ही प्यार करता,
क्या करूं आदत पड़ी है बालपन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की
पर न अब मुझको रुलाओ और ज्यादा,
पर न अब मुझको मिटाओ और ज्यादा,
हूं बहुत मैं सह चुका उपहास जग का,
अब न मुझ पर मुस्कराओ और ज्यादा।
धैर्य का भी तो कहीं पर अन्त है प्रिय!
और सीमा भी कहीं पर है सहन की।
छीन ली अब नींद भी मेरे नयन की।
4. मेरा नाम लिया जाएगा
आंसू जब सम्मानित होंगे, मुझको याद किया जाएगा
जहां प्रेम का चर्चा होगा, मेरा नाम लिया जाएगा
मान-पत्र मैं नहीं लिख सका, राजभवन के सम्मानों का
मैं तो आशिक़ रहा जन्म से, सुंदरता के दीवानों का
लेकिन था मालूम नहीं ये, केवल इस गलती के कारण
सारी उम्र भटकने वाला, मुझको शाप दिया जाएगा
खिलने को तैयार नहीं थी, तुलसी भी जिनके आंगन में
मैंने भर-भर दिए सितारे, उनके मटमैले दामन में
पीड़ा के संग रास रचाया, आंख भरी तो झूम के गाया
जैसे मैं जी लिया किसी से, क्या इस तरह जिया जाएगा
काजल और कटाक्षों पर तो, रीझ रही थी दुनिया सारी
मैंने किन्तु बरसने वाली, आंखों की आरती उतारी
रंग उड़ गए सब सतरंगी, तार-तार हर सांस हो गई
फटा हुआ यह कुर्ता अब तो, ज़्यादा नहीं सिया जाएगा
जब भी कोई सपना टूटा, मेरी आंख वहां बरसी है
तड़पा हूं मैं जब भी कोई, मछली पानी को तरसी है
गीत दर्द का पहला बेटा, दुख है उसका खेल-खिलौना
कविता तब मीरा होगी जब, हंसकर ज़हर पिया जाएगा।
तुम गए, गई झर मन की कली-कली।
तुम बोले पतझर में कोयल बोली,
बन गई पिघल गुंजार भ्रमर-टोली,
तुम चले चल उठी वायु रूप-वन की
झुक झूम-झूमकर डाल-डाल डोली,
मायावी घूंघट उठते ही क्षण में
रुक गया समय, पिघली दुख की बदली।
तुम गए, गई झर मन की कली-कली॥
रेशमी रजत मुस्कानों में रंगकर।
तारे बनकर छा गए अश्रु तम पर,
फंस उरझ उनींदे कुन्तुल-जालों में,
उतरा धरती पर ही राकेन्दु मुखर,
बन गई अमावस पूनों सोने की,
चांदी से चमक उठे पथ गली-गली।
तुम गए, गई झर मन की कली-कली॥
तुमने निज नीलांचल जब फैलाया,
दोपहरी मेरी बनी तरल छाया,
लाजारुण ऊषे झांकी झुरमुट से,
निज नयन ओट तुमने जब मुस्काया,
घुंघरू सी गमक उठी सूनी संध्या,
चंचल पायल जब आंगन में मचली।
तुम गए, गई झर मन की कली-कली॥
हो चले गए जब से तुम मनभावन!
मेरे आंगन में लहराता सावन,
हर समय बरसती बदली सी आंखें,
जुगनू सी इच्छाएं बुझतीं उन्मन,
बिखरे हैं बूंदों से सपने सारे,
गिरती आशा के नीड़ों पर बिजली।
तुम गए गई झर मन की कली-कली॥
पिया दूर है न पास है....
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।
बढ़ रहा शरीर, आयु घट रही,
चित्र बन रहा लकीर मिट रही,
आ रहा समीप लक्ष्य के पथिक,
राह किन्तु दूर दूर हट रही,
इसलिए सुहागरात के लिए
आंखों में न अश्रु है, न हास है।
जिन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।
गा रहा सितार, तार रो रहा,
जागती है नींद, विश्व सो रहा,
सूर्य पी रहा समुद्र की उमर,
और चांद बूंद बूंद हो रहा,
इसलिए सदैव हंस रहा मरण,
इसलिए सदा जनम उदास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।
बूंद गोद में लिए अंगार है,
होठ पर अंगार के तुषार है,
धूल में सिंदूर फूल का छिपा,
और फूल धूल का सिंगार है,
इसलिए विनाश है सृजन यहां
इसलिए सृजन यहाँ विनाश है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।
ध्यर्थ रात है अगर न स्वप्न है,
प्रात धूर, जो न स्वप्न भग्न है,
मृत्यु तो सदा नवीन जिन्दगी,
अन्यथा शरीर लाश नग्न है,
इसलिए अकास पर ज़मीन है,
इसलिए ज़मीन पर अकास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।
दीप अंधकार से निकल रहा,
क्योंकि तम बिना सनेह जल रहा,
जी रही सनेह मृत्यु जी रही,
क्योंकि आदमी अदेह ढल रहा,
इसलिए सदा अजेय धूल है,
इसलिए सदा विजेय श्वास है।
ज़िन्दगी न तृप्ति है, न प्यास है
क्योंकि पिया दूर है न पास है।
6. हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे
हम तो मस्त फकीर, हमारा कोई नहीं ठिकाना रे।
जैसा अपना आना प्यारे, वैसा अपना जाना रे।
रामघाट पर सुबह गुजारी
प्रेमघाट पर रात कटी
बिना छावनी बिना छपरिया
अपनी हर बरसात कटी
देखे कितने महल दुमहले, उनमें ठहरा तो समझा
कोई घर हो, भीतर से तो हर घर है वीराना रे।
औरों का धन सोना चांदी
अपना धन तो प्यार रहा
दिल से जो दिल का होता है
वो अपना व्यापार रहा
हानि लाभ की वो सोचें, जिनकी मंजिल धन दौलत हो!
हमें सुबह की ओस सरीखा लगा नफ़ा-नुकसाना रे।
कांटे फूल मिले जितने भी
स्वीकारे पूरे मन से
मान और अपमान हमें सब
दौर लगे पागलपन के
कौन गरीबा कौन अमीरा हमने सोचा नहीं कभी
सबका एक ठिकान लेकिन अलग अलग है जाना रे।
सबसे पीछे रहकर भी हम
सबसे आगे रहे सदा
बड़े बड़े आघात समय के
बड़े मजे से सहे सदा!
दुनिया की चालों से बिल्कुल, उलटी अपनी चाल रही
जो सबका सिरहाना है रे! वो अपना पैताना रे!
7. छिप-छिप अश्रु बहाने वालों
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आंख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है।
माला बिखर गई तो क्या है
खुद ही हल हो गई समस्या
आंसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आंगन नहीं मरा करता है।
खोता कुछ भी नहीं यहां पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।
लाखों बार गगरियां फूटीं,
शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियां डूबीं,
चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।
लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी न लेकिन गंध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर,
खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पण नहीं मरा करता है!
8. कारवां गुज़र गया
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लूट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पांव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गए कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दीये धुआं-धुआं पहन गए,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आईना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहां,
ऐसी कुछ हवा चली,
लूट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
सांस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूं,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूं,
और सांस यूं कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूं,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गए किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
मांग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गांव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चुनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
9. अभी न जाओ प्राण !
अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है,
अभी बरुनियों के कुञ्जों मैं छितरी छाया,
पलक-पात पर थिरक रही रजनी की माया,
श्यामल यमुना सी पुतली के कालीदह में,
अभी रहा फुफकार नाग बौखल बौराया,
अभी प्राण-बंसीबट में बज रही बंसुरिया,
अधरों के तट पर चुम्बन का रास शेष है।
अभी न जाओ प्राण ! प्राण में प्यास शेष है।
प्यास शेष है।
अभी स्पर्श से सेज सिहर उठती है, क्षण-क्षण,
गल-माला के फूल-फूल में पुलकित कम्पन,
खिसक-खिसक जाता उरोज से अभी लाज-पट,
अंग-अंग में अभी अनंग-तरंगित-कर्षण,
केलि-भवन के तरुण दीप की रूप-शिखा पर,
अभी शलभ के जलने का उल्लास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।
अगरु-गंध में मत्त कक्ष का कोना-कोना,
सजग द्वार पर निशि-प्रहरी सुकुमार सलोना,
अभी खोलने से कुनमुन करते गृह के पट
देखो साबित अभी विरह का चन्द्र-खिलौना,
रजत चांदनी के खुमार में अंकित अंजित-
आंगन की आंखों में नीलाकाश शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।
अभी लहर तट के आलिंगन में है सोई,
अलिनी नील कमल के गन्ध गर्भ में खोई,
पवन पेड़ की बांहों पर मूर्छित सा गुमसुम,
अभी तारकों से मदिरा ढुलकाता कोई,
एक नशा-सा व्याप्त सकल भू के कण-कण पर,
अभी सृष्टि में एक अतृप्ति-विलास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है।
अभी मृत्यु-सी शांति पड़े सूने पथ सारे,
अभी न उषा ने खोले प्राची के द्वारे,
अभी मौन तरु-नीड़, सुप्त पनघट, नौकातट,
अभी चांदनी के न जगे सपने निंदियारे,
अभी दूर है प्रात, रात के प्रणय-पत्र में-
बहुत सुनाने सुनने को इतिहास शेष है।
अभी न जाओ प्राण! प्राण में प्यास शेष है,
प्यास शेष है॥
10. जीवन जहां
जीवन जहां खत्म हो जाता !
उठते-गिरते,
जीवन-पथ पर
चलते-चलते,
पथिक पहुंच कर,
इस जीवन के चौराहे पर,
क्षणभर रुक कर,
सूनी दृष्टि डाल सम्मुख जब पीछे अपने नयन घुमाता !
जीवन वहां ख़त्म हो जाता !