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हिन्दी कविता : हे शारदे मां!

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सुशील कुमार शर्मा

हे शारदे मां!


 
जब भी आंख बंद कर
तुझे याद करता हूं
मेरी आंखों में झूलते हैं
बेबस लोकतंत्र की बोटियां
नोचते, ठहाके लगाते गिद्ध।
 
कुछ पक्ष और कुछ विपक्ष में
एक-दूसरे पर भौंकती आवाजें
लेकिन अपने स्वार्थों के लिए
निरीह जनों के अधिकार हड़पते
घिनौने सफेदपोश चेहरे।
 
हे शारदे मां!
 
जब भी तेरी तस्वीर के आगे
हाथ जोड़कर खड़ा होता हूं
मेरे सामने संसद में हुल्लड़ करते
खिलंदड़ चेहरे घूम जाते हैं
जो देश की जनता का खरा पैसा
उड़ा रहे है अपने स्वार्थों पर।
 
मुझे याद आते हैं दो हजार के लिए
लाइन में लगे गरीब बूढ़े आम लोग
साथ ही दिखते हैं गुलाबी नोटों की
गड्डियां उछालते सुनहरे चेहरे।
 
हे शारदे मां!
 
जब भी तेरी वंदना की
कोशिश करता हूं
टीवी पर चीखता हुआ एंकर
बड़े जोरों से घोषणा करता है
कि वही सच का पक्षधर है।
 
कोने में खड़ा सकते में सिसकता
आम आदमी देखता है किस तरह
अपने-अपने एजेंडे को आगे बढ़ाता
बाजारू मीडिया आम सरोकारों से
दूर पूंजीपतियों की आवाज बना है।
 
हे शारदे मां!
 
तेरी प्रार्थना के लिए जब भी
मेरी वाणी उत्साहित होती है
मेरे आजू-बाजू अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता के नाम पर
भारत एवं भारतीयता को
ललकारती गालियों का स्वर
किसी संस्थान की नीवों से आता है
संविधान की सौगंध को तोड़ती
जहरीली आवाजें फिजा में गूंजती हैं।
 
हे शारदे मां!
 
जब भी विद्यालय में
तेरी प्रार्थना करता हूं
शिक्षा की दो धाराएं
आंखों में झलकती हैं
सरकारी फटी-चिथी व्यवस्था
के बीच खड़ा मजदूर का बेटा
लकदक कॉन्वेंट की पोशाक में
फर्राटेदार कार से उतरते अमीर बच्चे।
 
हे शारदे मां!
 
जब भी तुझे अपने अंदर
प्रतिस्थापित करने की कोशिश की
पाया गहन अंधेरा, टूटा हुआ मन
अंदर बहुत जाले हैं भय-अहंकार के
माया-मोह बंधनों की धूल से अटा
ये अंतरमन बहुत व्यथित है।
 
हे शारदे मां!
 
करो मुक्त मेरा अंतरमन
करो चित्त मेरा निर्मल
दूर करो सारे अवगुण
करो प्रफुल्लित मेरा मन
साहित्य सुधा का दीप जला
करो उजासभरा जीवन।

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