देवेंन्द्र सोनी
खिड़की के पास बैठकर
देखते हैं वे हमेशा ही
सूनी निगाहों से अपलक
उस ओर, जहां से -
बंधी है थोथी उम्मीद उनकी।
एक राह निकलती है -
जो जोड़ती है, उनके घर को।
दिखता है खिड़की से हर मंजर
जो उछलता-कूदता चलता है
दिन-रात उस राह पर।
इसी राह से आशा है उन्हें
कि लौटा लाएगी जरूर
एक न एक दिन
विदेश गए अपने नाती-पोतों
और बेटा-बहू को।
अरसा बीत गया है देखे उन्हें
थक गई हैं आंखें
बाट जोहते-जोहते
खिड़की पर बैठकर ।
मन मसोस कर रह जाती है
बुढ़िया भी अब उनकी
झल्ला कर देती है ताना
खिड़की से तांका-झांकी करने का।
खुलकर दे नहीं सकती दिलासा
तो आरोप यही लगाती है।
छुप-छुप कर छुपा लेती है आंसू
एहसास नहीं होने देती है,
पर दुनिया देखी जिस बुढ़ऊ ने
वो कैसे इससे अनजान रहे ?
आस बंधा कर एक-दूजे को
तकते रहते हैं, दोनों ही राह सदा ।
जीवन की भी तो हो गई है संध्या
देखो, सूरज भी तो अब अपने घर चला।
आएंगे बच्चे भी घर अपने
सूरज के ढलते ही, पर
मन में है यह डर बसा-
मौन निशा के अंधकार में
देखेंगे फिर वे उन्हें कैसे भला ?
दर्द नहीं यह एक पिता का,
कई पिता हैं, ऐसे बेचारे
बच्चे ही समझें अब तो
रहें पास बनकर सहारे ।
धन-दौलत तो है चंचला
कभी न कभी मिल ही जाएगी।
छूट गया यदि साथ मात-पिता का
हो न सकेगी फिर इनकी भरपाई।
वक्त अभी भी है बच्चों ,
निर्णय तुमको करना है
वक्त यही फिर-फिर लौटेगा
जिससे तुम्हें भी गुजरना है।