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हिन्दी कविता : दीमक

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संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'

पिता की किताबें
जिन्हें लिखा था उन्होंने
रात रात भर जाग कर
 
कल्पना के भावों से
घर की जिम्मेदारी निभाने के साथ
 
कहते हैं साहित्य की पूजा ऐसे ही होती है
साहित्य का मोह भी होता है
जो लगता है तो अंत तक
साथ नहीं छोड़ता
 
इसलिए कहा भी गया है 
कि शब्द अमर है 
 
पिता का चश्मा, कलम, कुबड़ी
अब रखे हैं उनकी किताबों के संग
लगता है म्यूजियम/लायब्रेरी हो
यादों की 
 
मां मेहमानों को बताती-पढ़ाती
पिता की लिखी किताबें
मैं भी लिखना चाहता हूं
बनना चाहता हूं पिता की तरह
 
मगर भाग दौड़ की जिंदगी में फुर्सत कहां
मेरे ध्यान ना देने से ही 
लगने लगी है पिता की किताबों पर दीमक 
 
साहित्य का आदर/सम्मान करुंगा
तब ही बन पाउंगा
पिता की तरह लेखक 
 
पिता की किताबों के संग मेरी किताबों को
अब बचाना है दीमकों से मुझे

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