देवेन्द्र सोनी
साठ की वय
होने को आई है
मगर होती नहीं दिख रही,
जिम्मेदारियों में कमी ।
बचपन से लेकर
अब तक बीता है समय
सारा निरंतर संघर्ष ही
संघर्ष में ।
सोचा था मिलेगा
अब कुछ आराम
होगी कुछ अपने भी मन की
पर लगता नही है अभी भी ऐसा ।
सेवा निवृति के बाद
हाथ आई है जो रकम
सबकी अभिलाषाओं के चलते
वह भी थोड़ी लगती है ।
इसी दिन की प्रतीक्षा में
बैठे थे घर के सारे
चाह थी किसी को हार की
किसी को कार की ।
मैं क्या चाहता हूं,
इसकी फिक्र नहीं थी उन्हें
फिक्र थी तो बस इतनी कि
झटपट मिल जाए यह सब उन्हें।
देना चाहता था मैं भी
खुशियां अपार उन्हें मगर
चिंतित था, हो अपने सर पर भी
एक अदद छत खुद की ।
बहुत रहा यहां-वहां
किराए के मकानों में
तबादलों के दौरान, पर अब
चाहता था हो अपना भी मकान।
फिर एक वाजिब चिंता -
जर्जर होते जा रहे इस पिंजर
के रख-रखाव की भी तो थी
जो जाने कब देने लगे, अब धोखा ।
पर लगता है मेरी चिंता
सिर्फ मेरी ही है
अभाव और संघर्ष में ,
मैं पला-बढ़ा था, बच्चे तो नहीं ।
फिर, मैंने ही तो दी थी उन्हें
अभाव में रहकर भी
सुविधाओं की सौगात
संघर्ष से रखकर दूर ।
अब यदि वे हो गए हैं
अतिअभिलाषी, महत्वाकांक्षी
तो इसमें भला
उनका दोष कहां ?
बस यही सोचकर
समझा लिया है मैंने अपना मन
खुद को कर एक नए
संघर्ष के लिए पुनः तैयार ।
दे दिया है वचन उन्हें फिर
उनकी अभिलाषाएं पूरी करने का
और अपनी जिम्मेदारियों से
स्वयं को मुक्त न करने का ।
पकडूंगा फिर कोई राह
नए संघर्ष की
सेवा निवृति के बाद भी
उम्र भर के लिए, मुस्कुराते हुए।