Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

नई कविता - उम्मीद

Advertiesment
हमें फॉलो करें नई कविता - उम्मीद
webdunia

देवेन्द्र सोनी

कई सालों से देख रहा हूं 
मंदिर के बाहर 
एक कोने में बैठी 
अस्सी के आसपास होती उम्र की
उस वृद्धा को ।
 
जिसे होती है उम्मीद कि
आने-जाने वाले भक्तों से
इतना तो मिल ही जाएगा उसे
जिससे निकल जाएगी रात
आधा-दूधा खाकर परिवार की।
 
इसी उम्मीद में सह जाती है वह
बदन को थरथराती ठंड
ग्रीष्म की तपन और
बरसात का पानी भी ।
 
पाया है मैंने हमेशा ही 
उसके झुर्रीदार पोपले चेहरे पर
गजब का आत्मसंतोष।
 
देखकर उसे सोचता हूं अक्सर ही
क्यों नहीं है सब कुछ पाकर भी 
वह प्रेममयी मुस्कान और
आत्म संतोष चेहरे पर हमारे ।
 
मांगती वह भी है और 
मांगते हम भी हैं मंदिर जाकर ।
 
नहीं मिलता है उसे भी और हमें भी
रोज उम्मीद के मुताबिक 
पर फिर भी रहती है वह संतुष्ट 
और हम असंतुष्ट, क्यों ...?

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

क्यों और कैसे मनाया जाता है धनतेरस