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कविता : वह घूम रही उपवन

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विनोद वर्मा 'दुर्गेश'
वह घूम रही उपवन-उपवन
पुष्पों-सी नजाकत अधरों पर
नवनीत-सा कोमल उर थामे।
एक पाती प्रेम भरी लेकर
वह घूम रही उपवन-उपवन।

सुर्ख कपोलों पर स्याह लटें
धानी आंचल का कर स्पर्श।
छूने को नभ का केंद्र-पटल
वह घूम रही उपवन-उपवन।
 
मधुर रागिनी करतल ध्वनि पर
छेड़े अनकही अविरल सरगम।
सुधि बिसार गर्दन उचकाए
वह घूम रही उपवन-उपवन।
 
भोर को निकली सांझ ढले तक
प्रियतम की अपलक बाट जोहती।
अतृप्त अप्रसन्न और विक्षिप्त-सी
वह घूम रही उपवन-उपवन।
 
ना साज-सिंगार ना इच्छा बाकी
रोम-रोम बसे मूरत यार की।
ले अभिलाषा उसके आवन की
वह घूम रही उपवन-उपवन।


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