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हिन्दी कविता : देखा है तुमने...

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डॉ. रामकृष्ण सिंगी

देखा है तुमने, शश्य-श्यामल फसलों को
खेतों में लहराते-झूमते हुए? 


 
देखा है तुमने, अलमस्त हवा के झोंकों को
फसलों का सिर चूमते हुए? 
 
देखा है तुमने, आवारा भौंरों को
खिले फूलों पर मंडराते, गुनगुनाते?
 
देखा है तुमने, सतरंगी ति‍तलियों को
बागों में बेपरवाह घूमते हुए?
 
...नहीं देखा? तो देखना! ।।1।।
 
देखा है तुमने, क्षितिज पर उगते/डूबते
अरुण सूरज को? 
 
देखा है तुमने, तालों में कलियों के साथ
खिले पंकज को? 
 
देखा है तुमने, पूर्णिमा के चांद को
इतराते, खिलखिलाते हुए,
 
देखा है तुमने, अमावसी रात की काली ओढ़नी की
तारोंभरी सज-धज को? 
 
...नहीं देखा? तो देखना! ।।2।।
 
देखा है तुमने, मरुस्थल के सुघड़
रेतीले टीलों को? 
 
अपनी निराली जीवनशैली में मस्त
खानाबदोश कबीलों को? 
 
बर्फीले पहाड़ों/ घाटियों के बीच फक्कड़ घूमते
मासूम गड़रियों को? 
 
भगोरिया उत्सव में नाचते-गाते
युवा-युगल भीलों को? 
 
...नहीं देखा? तो देखना! ।।3।।
 
देखा है तुमने, दमघोंटू ट्रैफिक,
खतरनाक बाइकें।
 
सड़कों पर यहां-वहां बैठी जुगाली करते
आवारा जानवर।
 
तुमने तो देखा है, कचरा घरों पर घूमते
सू्अरों के झुंड,
उनके बीच प्लास्टिक बीनते बच्चे अक्सर।
... (यही देखना तुम्हारी मजबूरी है अब)
 
तुमने तो देखा है, बरसाती कीचड़
जल-जमाव, फूटी सड़कें।
 
समृद्ध कॉलोनियों के आसपास...
झुग्गियों में रेंगती जिंदगी। 
 
प्रकृति की चित्रशाला के चित्र
देखना नहीं तुम्हारा नसीब।
 
बेबस देखना पड़ रहा है
शिथिलता, लापरवाही गैरजिम्मेदारी
से जनित गंदगी, बस गंदगी!!
 
... (कब तक देखते रहोगे यह सब?) ।।4।।

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