पंकज सुबीर
बरसाने बरसन लगी, नौ मन केसर धार ।
ब्रज मंडल में आ गया, होली का त्यौहार ।।
लाल हरी नीली हुई, नखरैली गुलनार ।
रंग-रंगीली कर गया, होली का त्यौहार ।।
आंखों में महुआ भरा, सांसों में मकरंद ।
साजन दोहे सा लगे, गोरी लगती छंद ।।
कस के डस के जीत ली, रंग रसिया ने रार ।
होली ही हिम्मत हुई, होली ही हथियार ।।
हो ली, हो ली, हो ही ली, होनी थी जो बात ।
हौले से हंसली हंसी, कल फागुन की रात ।।
होली पे घर आ गया, साजणियो भरतार ।
कंचन काया की कली, किलक हुई कचनार ।।
केसरिया बालम लगा, हंस गोरी के अंग ।
गोरी तो केसर हुई, सांवरिया बेरंग ।।
देह गुलाबी कर गया, फागुन का उपहार ।
साँवरिया बेशर्म है, भली करे करतार ।।
बिरहन को याद आ रहा, साजन का भुजपाश।
अगन लगाये देह में, बन में खिला पलाश ।।
सांवरिया रंगरेज ने, की रं गरेजी खूब ।
फागुन की रैना हुई, रंग में डूबम डूब।।
सतरंगी सी देह पर, चूनर है पचरंग ।
तन में बजती बांसुरी, मन में बजे मृदंग ।।
जवाकुसुम के फूल से, डोरे पड़ गये नैन ।
सुर्खी है बतला रही, मनवा है बेचैन ।।
बरजोरी कर लिख गया, प्रीत रंग से छंद ।
ऊपर से रूठी दिखे, अंदर है आनंद ।।
होली में अबके हुआ, बड़ा अजूबा काम ।
सांवरिया गोरा हुआ, गोरी हो गई श्याम ।।
कंचन घट केशर घुली, चंदन डाली गंध ।
आ जाये जो साँवरा, हो जाये आनंद ।।
घर से निकली सांवरी, देख देख चहुं ओर ।
चुपके रंग लगा गया, इक छैला बरजोर ।।
बरजोरी कान्हा करे, राधा भागी जाय ।
बृजमंडल में डोलता, फागुन है गन्नाय ।।
होरी में इत उत लगी, दो अधरन की छाप ।
सखियां छेड़ें घेर कर, किसका है ये पाप ।।
कैसो रंग डारो पिया, सगरी हो गई लाल ।
किस नदिया में धोऊं अब, जाऊं अब किस ताल ।।
फागुन है सर पर चढ़ा, तिस पर दूजी भांग ।
उस पे ढोलक भी बजे, धिक धा धा, धिक तांग ।।
हौले हौले रंग पिया, कोमल कोमल गात ।
काहे की जल्दी तुझे, दूर अभी परभात।।
फगुआ की मस्ती चढ़ी, मनुआ हुआ मलंग ।
तीन चीज़ हैं सूझतीं, रंग, भंग और चंग ।।
(समस्त दोहे : पंकज सुबीर)