हर एक लफ्ज जो अपने लहू से धोते हैं
हर एक हर्फ को खुशबू में फिर भिगोते हैं
न हो मुश्क तो मुअत्तर(भीगा) है ये पसीने से
इन्हीं के दम से जमाने जमाने होते हैं
इन्हीं के नाम से जिंदा है ताबे-हिन्दुस्तां
इन्हीं के नाम नए सूरज उजाले बोते हैं
जो लब खुलें तो पलट दें ये कायनात का नक्शा
जो उठ गए तो नक्शे पे मीर होते हैं
यहां कहां जरूरत नए पयम्बर की
यह वो जमीं है जहां नाज़िल कबीर होते हैं...