गोपाल बघेल 'मधु'
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
(मधुगीति १७०६२४ ब)
नियति की नाटकी प्रवृति, निवृत्ति से ही तो आई है,
प्रकृति वह ही बनाई है, प्रगति जग वही लाई है !
नियंता कहां कुछ करता, संतुलन मात्र वह करता,
ज्योति आत्मा किसी देता, कम किए लौ कोई चलता !
न्याय करना उसे पड़ता, उचित संयत न जब होता,
समय बदलाव को देता, स्वल्प आघात तब करता !
स्वचालित संतुलित संस्थित, क्रियान्वित सजग शुभ प्रहरित,
सृष्टि संयम नियम रहती, नृत्य हर ताल करवाती !
प्रवृति दे ज्ञान करवाती, क्रियति कर मर्म सुधवाती,
भेद कर्त्ता का मिटवाती, प्रभु से 'मधु' को मिलवाती !