निशा माथुर
अवसान के समय स्वरमय, पहना दिया सफेद कफन,
संभला दी गई बंदिशें और प्रथाओं की ढेरों चाबियां ।
जिस सिंदूरी रिश्ते को वो मनुहार से जीती आई थी,
वही निर्जीव नसीब में लिख गया जमाने की रूसवाईयां ।
उसके माथे की लाली फिर धो दी समाज के ठेकेदारों ने,
आंगन में लाल चूड़ियां भी तोड़ दी वज्रकठोर रिश्तेनातों ने।
कानून बनाकर मौलिक अधिकारों पे संविधान लागू हो गए
वैधव्य का वास्ता देकर, समाजी रंगो की वसीयत लूट ले गए ।
सरहदें तय कर दी गई अब घर की देहरी-चौखट तक की,
उसकी जागीर से छीन ली गई मुस्कराहट उसके होठों की।
स्पंदित आखें नमक उतर आया, गंगाजल से उसे शुद्ध कराया,
बंटवारे में ऐलान सांसों को गिन-गिन कर लेने का आया।
निरामयता समर्पण से जुड़े रिश्ते तो उसे निभाने ही होंगे,
शून्य सृष्टि सी प्रकृति संग विरक्ति के नियम अपनाने होंगे।
बिछोह का दंश रोज छलेगा, तपस्या ही अब जीवन होगा,
तन पे सफेद साड़ी, सूनी कलाई और खामोश मातम होगा।