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कविता : पलकन की डोर

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निशा माथुर
वो हसंता गाता-सा चेहरा था, दो प्यारी दिलकश-सी आंखें थी
क्यूं पलकन की डोर से बंधकर, अब तेरे दो मोती उलझ ही गए
 
वो नूर बहारों का छलका था और गहरी-गहरी सी चितवन थी
इस निर्मल झील के पानी में फिर, क्यूं तेरे दिल के कंकर उछल गए
 

 
वो शोखियों में यूं महक रही थी, अल्हड़-अलबेली इक साहिल थी
ज्वार-ज्वार से उमड़-उमड़ कर, तुम क्यूं सागर गहरे छलक गए
 
वो प्यासा- प्यासा सा पनघट थी और निपट अकेली इक घट थी
उसकी मदहोशी में डूब-डूब कर, तुम क्यूं घूंट-घूंट पे बहक गए
 
वो मधुर मुस्कान चहक रही थी, निगाहें उफ क्या खंजर-सी थी
कत्ल होने को उसकी नजरों से, तुम क्यूं बहके दीवाने मचल गए
 
उन नैनो के संग इक बिंदिया थी, अब झीनी जिसने तेरी निंदिया थी
अंगड़ाई लेते उस जलते सूरज से, तुम क्यूं रोम-रोम से झुलस गए
 
वो ऐसी बोलती-सी दो आंखे थी, जो सांस-सांस को ये कहती थी
पलकन की डोर से बंधकर आखिर, अब तेरे दो मोती उलझ ही गए

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