पुष्पा परजिया
सोने के पिंजरे में बंद चिड़िया
सोचे बैठे-बैठे कितना सुंदर था चमन वो मेरा
जहां थे खुली हवा के झोंके, पहाड़ों से बहती ठंडी हवा में
मैं झूम झूम नाचती गाती , चहकती थी मिल सखियों संग
ठिठोली किया करती थी मैं,
मुश्किल से मिलते थे चावल के दाने, पर फलों से पेट मैं भरती थी
फिर हो बिंदास, नभ के आंगन में
मैं लहराया करती थी
कभी जाती गौरेया के घर तो, कभी बुलाती थी अन्य सखियां
मन भर मस्ती करती फिर थक कर सो जाया करती थी
खुशियों के संग हंसते रमते, खुशी से जीवन गुजर रहा था
पर भाग्य ने खाया ऐसा पलटा,
न वो पहाड़ों का मंजर रहा
न वो मेरा प्यारा घर ही रहा
सिर्फ बदलती नहीं इंसानों की दुनिया
हम पंखी भी किस्मत के मारे हैं
क्यूंकि, जब पड़ती किसी शिकारी की नजर
या मारे जाते या पिंजरे में बंद किए जाते हैं
इक दिन इक राजा आया
ले गया वो बंदी बनाकर मुझे
कहा अनुचरों से लाओ सोने का पिंजरा
रखो उसमें इस प्यारी-सी चिड़िया को
सोने का सुंदर पिंजरा था पर, था तो आखिर पिंजरा ही
इस हालत पर कितना मेरा दिल था रोया
सोने का पिंजरा मेरे किस काम का? ऐसा सोचा था
मैं तो मस्त गगन में उड़ती तब
भोर सुनहरी शाम सुनहरी और सुनहरी सपने थे
वो खुला गगन ही मेरा सोना था
सोने के बर्तन में राजा देता उसको दाना पानी था
चिड़िया को पर न भाता था
सहमी-सहमी रहती हर पल, कुछ भी रास नहीं आता था
आजाद परिंदों का कलरव वह
दूर से सुनती रहती थी
तब-तब आजादी उसे अपनी याद आती थी
खारे आंसू से उसके तब नयन कटोरे भर आते थे
ऐसी ही दीन दशा में रहते गुजर गए पिंजरे में सालों
एक दिन राजा उठा सुबह को
सुनकर चिड़िया के पास कुछ पक्षियों का कलरव
देखा चिड़िया गिरी पड़ी थी उड़ गए थे प्राण पखेरू उसके
कहते थे मानो राजा से, हर पक्षी को आजादी देना
किसी को तुम यह सजा न देना,
चाहे कैसा भी पिंजरा हो, है तो आखिर पिंजरा ही
पिंजरे का जीवन सजा है भारी
क्योंकि हर पिंजरा इक बंदीगृह है